पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/२६८

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

150 बौर-धर्म-दर्शन की साधना अष्टांगिक मार्ग की नहीं है, किन्तु पारमिता की है। यह क्षान्ति-पारमिता में परिपूर्ण है । यह बुद्ध होना चाहता है, अहंत नहीं। जातक की निदान-कथा से मालूम होता है कि शाक्य मुनि ने ५४७ जन्मों में पारमितानों की साधना की थी। बुद्ध होने के पूर्व वे बोधिसत्व थे। इस चर्या से उन्होंने पुण्य और शान-संभार प्राप्त किया था। वेस्सन्तर जातक में बोधिसत्व ने अपने शरीर का मांस भी दान में दे दिया था। वे सबके साथ मैत्री-भाव रखते थे। वे कहते है-जैसे माता अपने एक मात्र पुत्र की रक्षा प्राण देकर भी करती है, उसी प्रकार सब जीवों के साथ अप्रमेय (प्रमाण-रहित ) मैत्री होनी चाहिए | इस नई विचार-प्रणाली के अनुसार भिक्षु इस मैत्री-भावना के बिना नहीं हो सकता । इस दृष्टि में बुद्ध का पूर्ण वैराग्य ही पर्याप्त नहीं है, किन्तु बुद्ध की सक्रिय मैत्री भी चाहिए । यह महायान का श्रादर्श है । बोधिसत्व संसार के जीवों के निस्तार के लिए निर्वाण में प्रवेश को भी स्थगित कर देता है । वह सब जीवों को दुःख से विमुक्त करना चाहता है। वह कहता है कि सबका दुःख-सुख बराबर है। मुझे सबका पालन प्रात्मवत् करना चाहिये । जब सबको समान रूप से दुःख और भय अप्रिय है, तब मुझमें क्या विशेषता है, जो मैं अपनी ही रक्षा करूँ, दूसरों की न करूँ । उसके बहल से क्या लाभ, जो अपने ही लिए अर्हत् है ? क्या वह राग-विनिमुक्त है, जो अपने ही दुःख-विमोचन का ख्याल करता है । जो केवल अपने ही निर्वाण का विचार करता है, जो स्वार्थी है, जो सर्व क्लेश-विनिमुक है, बो द्वेष और करुणा दोनों से विनिर्मुक है, ऐसा अर्हत् क्या निर्वाण के मार्ग का पथिक होगा १ हीनयानी व्यर्थ कहते हैं कि उनका अर्हत् जीवन्मुक्त है। सच्चा अर्हत् बोधिसत्व है। इनके अनुसार हीनयानियों का मोक्ष अरसिक है (बोधिचर्यावतार, ८,१०८)। अर्हत् के निर्वाण और बुद्ध के निर्वाण में भी भेद हो गया। स्तोत्रकार मातृचेट कहते हैं कि जिस प्रकार नील आकाश और रोम-कूप के विवर दोनो आकाश-धातु है, किन्तु दोनों में श्राकाश-पाताल का अन्तर है, उसी प्रकार का अन्तर भगवत् के निर्वाण और दूसरों के निर्वाण में है । बुद्ध के पूर्व जन्म शाक्यमुनि सर्वज्ञ थे। वे परम कारुणिक थे । जीवों के उद्धार के लिए उन्होंने उस सत्य का उद्घाटन किया और उस मार्ग का अाविष्कार किया, जिस पर चलकर लोग संसार से मुक होते हैं। उन्होंने सम्यक्-ज्ञान की प्राप्ति केवल अपने लिए नहीं की, किन्तु अनेक बीवों के क्लेश-बंधन को नष्ट करने के लिए की। इसके विपरीत अर्हत् केवल अपने निर्वाण के लिए थलवान होता था । अर्हत् का श्रादर्श बुद्ध के प्रादर्श की अपेक्षा तुच्छ था। इस विशेषता का कारण यह है कि बुद्ध ने पूर्वजन्मों में पुण्यराशि का संचय किया था, और अनन्त ज्ञान प्राप्त किया था । भगवान् बुद्ध का जीवन-चरित अध्ययन करने से ज्ञात होता है कि वह पूर्व-जन्मों में 'बोधिसत्व थे । जातक की निदान-कथा में वर्णित है कि अनेक कल्प व्यतीत हो गये कि शाक्यमुनि श्रमरवती नगरी में, एक ब्राह्मण कुल में, उत्पन्न हुए थे । उनका नाम सुमेध था। बाल्यकाल में ही उनके माता-पिता का देहान्त हो गया था। सुमेध को वैराग्य उत्पन्न हुआ और