पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/२६५

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नवम भण्याय शाकों के अनुसार त्रिकाय के अतिरिक्त एक सुखकाय भी है। इस महा-सुख की प्राप्ति एक अनुशान द्वारा होती है । मंत्रयान और वज्रयान का साहित्य 'तन्त्र' कहलाता है । कुछ महा- यान सूत्र ऐसे हैं, जिनमें तंत्र-भाग भी पाया जाता है । बौद्ध तन्त्रों के चार वर्ग है:--क्रिया-तन्त्र जिसमें मन्दिर-निर्माण, प्रतिमा-प्रतिष्ठा श्रादि से सम्बध रखने वाले अनुष्ठान वर्णित हैवर्या- तन्त्र, जिसमें चर्या का वर्णन है; योग-तन्त्र जिनमें योग की क्रिया वर्णित है और अनुत्तर-योग- तन्त्र । प्रथम वर्ग का प्रसिद्ध ग्रन्थ 'श्रादिकर्मप्रदीपा है, जिसमें गृह्यसूत्रों तथा कर्मप्रदीपों की शैली में बुद्धत्व की कामना से महायान का अनुसरण करनेवाले 'श्रादिकर्मिक बोधिसत्व की दीक्षा के नियमों तथा उसकी दिनचर्या बतायी गयी है । क्रिया-तन्त्र का दूसरा प्रन्य 'अष्टमी-व्रत- विधान' है, जिसमें प्रतिपक्ष की अष्टमी को रहस्यमय मन्त्रों और मुद्राओं का अनुष्ठान विहित है। तन्त्र साहित्य में साधनाओं का भी समावेश होता है । साधनाओं में मन्त्री, मुद्राओं और ध्यान के द्वारा अणिमा, लघिमा अादि सिद्धियों के अतिरिक्त सर्वज्ञता तथा निर्वाण की सिदि के उपाय बताये गये हैं । ध्यान के लिए उपास्य देवों का जो वर्णन किया गया है, उसका बौद्ध शिल्पियों ने मूर्ति-निर्माण के लिए पर्याप्त उपयोग किया है । इस दृष्टि से 'साधन-माला'-- जिसमें ३१२ सपना संगृहीत है, तथा 'साधन-समुच्चय' जैसे ग्रन्थों का बड़ा महल है। उपास्य देवों में ध्यानी-बुद्ध तथा उनके कुटुम्ब और तारा श्रादि देवियां भी है। बौद्धों का कामदेव भी है, जिसका नाम वनानंग है; और जो मंजुश्री का अवतार है । साधनाओं का मुख्य तात्पर्य तन्त्र और इन्द्रजाल है, यद्यपि इनका अधिकार प्राप्त करने के लिए योगाभ्यास, ध्यान, पूजा, मैत्री तया करुणा आदि का अनुष्ठान करना आवश्यक बताया गया है । 'तारा-साधना में इन गुणों का विस्तृत निरूपण है । साधनाओं का निर्माण काल ७ वीं से ११ वीं शताब्दी तक माना गया है । कतिपय साधनाओं के प्रणेता तन्त्रों के भी प्रणेता बताये गये हैं | नागार्जुन ने ( माध्यमिक सम्प्रदाय के प्रणेता नहीं) ७ वीं शताब्दी में अनेक माधनाओं और तन्त्रों का प्रणयन किया । इनके सम्बन्ध में कहा जाता है कि ये एक साधना भोट देश अथार तिब्बत से लाये थे। इनके अनेक तन्त्र-ग्रन्थ तंजोर में पाये गये हैं। उडियान ( उड़ीमा ) के राजा और 'ज्ञान- सिद्धि तथा अनेक अन्य तन्त्र-ग्रन्थों के रचयिता इन्द्रभूति ( ६-७-७१७ ई.) मी एक साधना के प्रणेता बताये जाते है। इनके समकालीन पनवज्र-कृत 'गुत्थसिद्धिमें वज्रयान की समस्त गुह्य-क्रियाओं का निरूपण है। इन्द्रभूति के पुत्र पद्मसम्भव लामा-संप्रदाय के प्रणेता थे। इन्द्रभूति की बहन लक्ष्मीकरा ने अपने ग्रन्थ 'श्रद्वय-सिद्धि' में सहजयान के नवीन देत सिद्धान्त का प्रतिपादन किया, जो बंगाल के बाउल लोगों में अब भी प्रचलित है। उसने तपस्या, क्रिया तथा मूर्तिपूना का खंडन किया, और सर्वदेवों के निवासस्थान मानव-शरीर का ध्यान करने का विधान किया । तन्त्र-लेखकों में सहयोगिनी-चिन्ता' श्रादि अन्य प्रमुख लेखि- कात्रों के अनेक नाम दिखाई देते हैं। प्रारम्भिक तन्त्र महायान सूत्रों से बहुत मिलते-जुलते हैं। इनमें ७वीं शती में प्रयीत तथागतगुगक या 'गुल-समाज' बड़ा प्रामाणिक ग्रन्थ है। 'पंचकर्म' इसी का एक