पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/२३२

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बौद-धर्म-दर्शन यह मेरा ही अपराध है, न कि श्रापका । यदि भगवान् से हम पहले ही प्रार्थना करते तो भगवान् हमें सामुत्कर्षिकी-धर्मदेशना ( चतुराय -सत्य-देशना ) के समय ही इस अनुत्तरा सम्यक संबोधि की भी देशना देते और हम बुद्ध-यान में ही निर्यात होते । भगवन् ! श्राज बुद्ध-यान का उपदेश सुनकर मैं कृतार्थ हुश्रा हूँ, मेरा पश्चात्ताप मिट गया है। भगवान ने कहा "हे शारि- पुत्र ? मैं तुमको बताता हूँ कि तुमने अतीत-भवों में अनुत्तरा-सम्यक्सबोधि के लिए मेरे पास ही चर्या-प्रणिधान किया है, किन्तु तुम उसका स्मरण नहीं कर पा रहे हो और अपने को निर्वाण- प्राप्त समझते हो ? पूर्व के चर्या-प्रणिधान-ज्ञान का तुम्हें स्मरण दिलाने के लिएही 'सद्धर्मपुण्डरीका नाम के इस महावैपुल्य धर्मपर्याय का प्रकाशन श्रावकों के निमित्त करूँगा।" "हे शारिपुत्र ! अनागत काल में तुम भी पद्मप्रम नाम के तथागत होकर धर्म-प्रकाश करोगे। यह मेरा व्याकरण है; तुम प्रसन्न हो ।” भगवान् के इस व्याकरण का देवों ने अभिनन्दन किया और कहा-भगवान् ने पहला धर्मचक्र प्रवर्तन वाराणसी में किया था, यह अनुत्तर द्वितीय धर्मचक्र प्रवर्तन भगवान् ने अब किया है। "पूर्व भगवता वाराणस्यामृपिपत्तने मृगदावे धर्मचक्र प्रवर्तितमिदं पुनर्भगक्ताद्यानुत्तरं द्वितीयं धर्मचक्र प्रवर्तितम्।। तब शारिपुत्र ने कहा-"भगवन् मैं निष्कान हूँ। भगवान् के व्याकरण से मैं निष्कांक्ष हुश्रा हूँ । परन्तु यहाँ बारह हजार ऐसे श्रावक हैं जिन्हें भगवान् ने ही पहले शैक्षभूमि में श्राहित किया था। आपने उनसे कहा था-- "एतत्पर्यवसानो मे भिक्षदो धर्मबिनयो यदिदं जाति-जरा-व्याधि-मरण-शोकसमतिक्रमो निर्वाणसमवसरणः। इन्हें भगवान् के इस द्वितीय धर्म-चक्र-प्रवर्तन को मुनकर विचिकित्सा हुईभ गवान् इन्हे निशंक करें । तब भगवान ने कहा-शारिपुत्र ! मैं तुम्हें एक उपमा देता हूँ। यहाँ किसी नगर में एक महाधनी पुरुष है। उसके कई बच्चे हैं। उसके निवेशन में यदि श्राग लग जाय और उसमें उसके बच्चे घिर जायें और निकलने का एक ही द्वार हो, तब वह पिता सोचता है कि बचों को खिलौने प्रिय हैं और मेरे पास कई खिलौने हैं जैसे कि गोरथ, अजरथ, मृगरथ, इत्यादि । झट वह बधों को पुकारकर कहता है-बचो ! अायो ! खिलौने लो! तब वे बये खिलौने के लोभ से शीघ्र बाहर श्रा जाते हैं। हे शारिपुत्र ! वह पिता उन सभी बचों को सर्वोत्कृष्ट गोरथ ही देता है। अजरथ या मृगरथ, जो हीन है, उसे नहीं देता। ऐसा क्यों ? इसीलिए कि वह पुरुष महाधनी है, उसका कोश और कोष्ठागार सम्पूर्ण है। ये सभी मेरे पुत्र है। मुझे चाहिये कि मैं सबको समान मानकर 'महायान' ही दूँ । क्या शारिपुत्र ! उस पिता ने तीन यानों को बताकर एक ही 'महायान दिया इसमें क्या उसका मृघावाद है ? शारिपुत्र कहा- 'नहीं; भगवन् । “साधु, शारिपुत्र ! तथागत सम्यक् सम्बुद्ध भी महोपायकौशल्यशानपरमपारमिता- प्राप्त महाकारुणिक, हितैषी और अनुकम्पक हैं। वह सभी सत्वों के पिता है। (श्रहं खल्वेषां सत्वानां पिता) दुःखरूपी निवेशन से बाहर लाने के लिए वह आवकयान, प्रत्येक बुबयान