पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/२२२

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बौर-धर्म-रांग कोई इन सूत्रान्तों को सुनकर इनपर श्रद्धा न लावगा, वह च्युत होने पर अवीचि नाम महानरक में गिरगा । नानन्द ! तथागत को बात अप्रामाणिक नहीं होती। इसके विपरीत जोहन सूत्रान्तों को सुनकर प्रसन्न होंगे उनको प्रसाद सुलभ होगा। उनका जीवन और मानुष्य सफल और सार्थक होगा। वे सारपदार्थ का ग्रहण करेंगे । वे तीनों अपायों से मुक्त होंगे । तथागत- धर्म में श्रद्धा रखने का यही फल है। जिन सत्वों को भावान् का दर्शन या धर्मश्रवण प्रिय होता है, भगवान् उनको मुक्त करते हैं और उनको भगवद्भार की प्राप्ति होती है । श्रद्धा का अभ्यास करना चाहिये। मित्र के मिलने के लिए लोग योजनशत भी जाते हैं और अपूर्व मित्र को देखकर सुखी होते हैं। फिर उसका क्या कहना जो मेरे आश्रित हो कुशलमूल का प्रारोपण करता है । जो मुझ पर श्रद्धा रखते हैं अनागत बुद्ध भी उनकी अभिलाषा पूर्ण करेंगे । जो मेरी शरण में आये हैं ये मेरे मित्र हैं। मैं उनका कल्याण साधित करता हूँ । तथा- गत के यह मित्र है, यह समझकर अनागतबुद्ध भी उनके साथ मैत्री करेंगे। इसलिए, हे श्रानन्द ! श्रद्धोत्पाद के लिए उद्योग करो। यह संवाद अकारण नहीं है। बुद्ध की गर्भावक्रान्ति तथा जन्म की जो कथा ललित- विस्तर में मिलती है वह पालिग्रन्थों में वर्णित कथा से भिन्न है । यद्यपि पालिग्रन्थों में भगवान् के अनेक अद्भुत-धर्म वर्णित है तथापि इन अद्भुत धर्मों से---समन्वागत होते हुए भी पालि- अन्यों के बुद्ध अन्य मनुष्यों के समान जरा-मरण-दुःख और दौमनस्य के अधीन थे। बुद्ध ने स्वयं कहा था कि मैं लोक में ज्येष्ठ और श्रेष्ठ हूँ और सर्वसत्यों में अनुत्तर हूँ। संयुत्त-निकाय (स्कन्धवग, भाग ३, पृष्ठ १४० ) में बुद्ध ने कहा है कि जिस प्रकार हे भिन्तु ! कमल उदक में ही उत्पन्न होता है और उदक में ही संबद्ध है पर उदक से अनुपलिप्त होकर उदक के ऊपर स्थित है, उसी प्रकार तथागत लोक में संबद्ध होकर भी लोक को अभिभूत कर लोक से बिना उपलिस हुए विहार करते हैं। दीघनिकाय (दूसरा भाग, पृष्ठ १२, महापदानसुत्तंत ) के अनुसार बोधिसत्व की यह धर्मता है कि अब वह तुषितकाय से च्युत हो माता की कुक्षि में उत्क्रान्ति करते हैं, तब सब लोकों में अप्रमाण अवभास का प्रादुर्भाव होता है । यह श्रवभात देवताओं के तेब को भी अवभासित करता है। दीघनिकाय (भाग ३, पृष्ठ १६ ) के अनुसार बोधिसत्व महापुरुष के बत्तीस लक्षणों से और बयासी अनुष्यजनों से समन्वागत होते हैं। महापरिनिर्वाण सूत्र के अनुसार तथागत यदि चाहे तो कल्पपर्यन्त या कल्पावशेष पर्यन्त निवास कर सकते हैं। इसी लिए आनन्द ने भगवान् से देवमनुष्यों के कल्याण के लिए कल्म्पर्यन्त अवस्थिति रखने की प्रार्थना की थी। पर भगवान् श्रायु-संस्कार का उत्सर्ग पहले ही कर चुके थे, इसलिए उन्होंने श्रानन्द की प्रार्थना स्वीकार नहीं की। इन अद्भुत भों को मानते हुए भी पालि-अन्यों के बुद्ध लोकोत्तर केवल इसी अर्थ में है कि उन्होंने विशेष उद्योग कर मोद के मार्ग का अन्वेषण किया, और दूसरे उनके बताए हुए मार्ग का अनुसरण करने से ही प्राईव की अवस्था को प्राप्त कर सकते है, उनको मार्ग का अन्वेषण नहीं करना पड़ता । पर महासाधिक- लोकोत्तरवादी लोकोत्तर शब्द का प्रयोग इस अर्थ में नहीं करते। यदि उनको भी यह अर्थ मान्य होता तो बौद्धों में इस प्रश्न पर मतभेद होने का कोई कारण न था और न उनमें लोको-