पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/२०५

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पा अध्याय न इसका भाव है, न अभाव । श्राकाश के समान यह एकरस है; इसका स्वभाव अव्यक्त है; यह निलेप, निर्विकार, अतुल्य, सर्वव्यारी और प्रपञ्चरहित है । यह स्वमवेद्य है। बुद्धों का ऐसा धर्मकाय अनुपम है।" तान्त्रिक ग्रन्थों में धर्मकाय को वैरोचन, वज्रसत्त्व या श्रादि-बुद्ध कहा है । यह धर्मकाय बुद्ध का सर्वश्रेष्ठ काय है। रूप काय या निर्माण काय-भगवान् का जन्म लुम्बिनी वन में हुआ था। उनका जन्म जरायुज है औपपादुक नहीं। वह गर्भ में संग्रजन्य के साथ नियाम करते हैं और संग्रजन्य के सहित गर्भ से बाहर लाते हैं । औपपादुक योनि श्रेष्ठ समझी जाती है किन्तु बोधिसत्त्व जरायुज योनि पसन्द करते हैं । मरण पर औपपादुक अर्चि के सदृश विनष्ट हो जाता है। ऐसा होने पर उपासक धातुगर्भ की पूजा न कर सकते। इसलिए बोधिसत्त्व ने जरायुज-योनि पसन्द की । महावस्तु के अनुसार यद्यपि बोधसत्त्व की गर्भावक्रान्ति होती है तथापि वह औपपादुक हैं । सर्वास्तिवादियों के अनुसार रूपकाय सासव है किन्तु महासाधिक और सौत्रान्तिकों का मत है कि बुद्ध का रूपकाय अनासव है । महासांघिक निम्न सूत्र का प्रमाण देते हैं। "तथा गत लोक में सपृद्ध होते हैं, वह लोक को अभिभूत कर बिहार करते हैं, वह लोक से उप- लित नहीं होते (संयुत्त, ३, १४०)। विभागाकार इस मत का निराकरण करते हैं और यह सिद्ध करते हैं कि जन्मकाय सासव है । यदि अनानव होता तो अनुपमा में बुद्ध के प्रति काम- राग उत्पन्न नहीं होता, अङ्गुलिमाल में देर-भाव उत्पन्न नहीं होता इत्यादि । वह कहते हैं कि सूत्र के पहले भाग में जन्मकाय का उल्लेख है और बत्र सूत्र कहता है कि यह काय लौकिक धर्मों से उपलित नहीं होता है तो उसकी अभिसंधि धर्मकाय से है। भगवान् का रूपकाय अविद्या-तृष्णा से निवृत्त है, अतः वह सासव है। किन्तु हम रूपकाय के लिए भी यह कह सकते हैं कि यह लाभादि ८ लौकिक धर्मों से प्रभावित नहीं है। बुद्ध का रूप-काय निर्माण-काय या निर्मित-काय कहलाता है। सुषण-प्रभास में कहा है कि भगवान् न कृत्रिम हैं और न उत्पन्न होते हैं। केवल सत्वों के परिपाक के लिए निर्मित- काय का दर्शन करते हैं । अस्थि और रुधिर-रहित काय में धातु (= अस्थि) की कहाँ सम्भावना है १ भगवान् में सर्पपमात्र भी धातु नहीं है। केवल सत्वों का हित करने के लिए वह उपाय- कौशल द्वारा धातु का निर्माण करते हैं । वेतुल्यकों का यह विचार था कि बुद्ध संसार में जन्म नहीं लेते, वह सदा तुपित लोक में निवास करते हैं पर संसार के हित के लिए निर्मित रूप- मात्र लोक में भेजते हैं । सद्धर्मपुण्डरीक में "क स्थल पर तथागत-मैत्रेय का संवाद है, जिसमें मैत्रेय पूछते हैं कि इन असंख्य-बोषितत्वों का जो पृथ्वी-विवर से निकले हैं, समुद्गम कहाँ से हुा । उस समय जो सम्यक्-सम्बुद्ध अन्य असंख्य लोक-धातुओं से श्राए हुए थे, और शाक्य- मुनि तथागत के निर्मित थे, और अन्य लोक-धातुओं में धर्म का उपदेश करते थे । शाक्यमुनि के चारों ओर पर्य-बद्ध हो श्रासनोपविष्ट हुए । यहाँ अन्य लोक-धातु के तथागतों को शाक्य-