पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/१६२

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७४ बौद-धर्म-दर्शन जन तीसरे ध्यान का पाँच प्रकार से अच्छी तरह अभ्यास हो जाता है, तब तृतीय-ध्यान से उठकर योगी विचारता है कि तृतीय-ध्यान सदोष है, क्योंकि इसका सुख स्थूल है और इसलिए इसके अंग दुर्बल हैं। यह देखकर कि चतुर्थ-ध्यान शान्त है उसे चतुर्थ-ध्यान के अधि. गम के लिए, यत्नशील होना चाहिये। जब स्मृति-सम्प्रजन्यपूर्वक वह ध्यान के अंगों की प्रत्यवेक्षा करता है तो उसे मालूम होता है कि चैतसिक सुख स्थूल हैं और उपेक्षा, वेदना तथा चित्तैकाग्रता शान्त हैं । तत्र स्थूल अंग के प्रहाण तथा शान्त अंगों के प्रतिलाभ के लिए वह उसी पृथ्वीनिमित्त का बार-बार ध्यान करता है । भवांग का उपच्छेद कर चित्त का आवर्जन होता है, जिसमे यह सूचित होता है कि अब चतुर्थ-ध्यान सम्पादित होगा, उसी पृथ्वी-कसिण में चार या पाँच जयन उत्पन्न होते हैं, केवल अन्तिम बवन रूपावन्चर चौथे ध्यान का है। चतुर्थ ध्यान के दो अंग है--१. उपेक्षा-वेदना और २. एकाग्रता । चतुर्थ-ध्यान के उपचार-क्षण में चैतसिक सुख का प्रहाण होता है । कायिक दुःख का प्रथम ध्यान के उपचार क्षण में, चैतसिक दुःख का द्वितीय और कायिक सुख का तृतीय-ध्यान के उपचार-क्षण में, निरोध होता है पर अतिशय निरोध उस ध्यान की अर्पणा में ही होता है । प्रथम-ध्यान के उपचार-क्षण में जो निरोध होता है वह अत्यन्त निरोध नहीं है, पर अर्पणा में प्रीति के स्फुरण से सारा शरीर सुख से अवक्रान्त होता है । इस प्रकार प्रतिपक्षी-सुत्र द्वारा दुःखेन्द्रिय का अत्यन्त निरोध होता है । इसी प्रकार यद्यपि द्वितीय-ध्यान के उपचार-क्षण में चैतसिक दुःख का प्रहाण होता है तथापि वितर्क और विचार के कारण चित्त का उपधात हो सकता है, पर अर्पणा में वितर्क और विचार के प्रभाव से इसकी कोई संभावना नहीं है। इसी प्रकार यद्यपि तृतीय-ध्यान के उप-चार-क्षण में कायिक-सुख कर निरोध होता है तथापि सुख के प्रत्यय (= हेतु) प्रीति के रहने से कायिक-मुग्न की उत्पत्ति सम्भव है। पर अर्पणा में प्रीति के अत्यन्त निरोध से इसकी सम्भावना नहीं रह जाती। इसी तरह चतुर्थ-ध्यान के उपचार-क्षण में अर्पणा-प्राप्त उपेक्षा के अभाव तथा भली प्रकार से चैतसिक सुम्ब का अतिक्रम न होने से चैतसिक सुग्व की उत्पत्ति सम्भव है, पर अर्पणा में इसकी सम्भावना नहीं है । यह दुःख और मुख-रहित वेदना अतिसूक्ष्म और दुर्विज्ञेय है; सुगमता से इसका ग्रहण नहीं हो सकता। यह न कायिक सुख है, न कायिक दुःख, न चैतसिक मुख है न चैतसिक दुख । यह सुख, दुःख, सौमनस्य (= चैसिक सुख ) और दौर्मनस्य (=चैतसिक दुःख) का अभाव मात्र नहीं है । यह तीसरी वेदना है। इसे उपेक्षा भी कहते हैं। यही उपेक्षा चित्त की विमुक्ति (पालि : चेतो विमुत्ति ) है । सुख दुःखादि के प्रहाण से इसका अधिगम होता है । सुख श्रादि के घात से राग-द्वप प्रत्यय-( हेतु) सहित नष्ट हो जाते हैं, अर्थात् उनका दूरीभाव हो जाता है। चतुर्थ-ध्यान में स्मृति परिशुद्ध' होती है। यह परिशुद्धि उपेक्षा के द्वारा होती है, अन्यथा नहीं। केवल स्मृति ही परिशुद्ध नहीं होती किन्तु सब संप्रयुक्त .. पलायनये स्मृत्युपेक्षाऽमुसालसमाधपः । [भभिधर्मको ८]