पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/१६१

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पंचम अध्याय ग्रहण में बो उपेक्षा उत्पन्न होती है वह संस्कारोपेक्षा है। यह उपेक्षा समाधिवश पाठ' और विपश्यनावश दश प्रकार की है । जो उपेक्षा दुःख और सुख से रहित है वह वेदनोपेक्षा कहलाती है। अनित्यादि लक्षणों पर विचार करने से पंचस्कन्ध के विषय में जो उपेक्षा उत्पन्न होती है वह 'विपश्यनोपेक्षा है । जो उपेक्षा सम्प्रयुक्त धर्मों की समप्रवृत्ति में हेतु होती है वह 'तत्रमध्यत्वोपेक्षा है। जो उपेक्षा तृतीय-ध्यान के अग्रसुख के विषय में भी पक्षपात रहित है वह ध्यानोपेक्षा कहलाती है। जो उपेक्षा नीवरण, वितर्क, विचारादि अन्तरायों से विमुक्त है और जो उनके उपशम के व्यापार में प्रवृत्त नहीं है वह 'पारिशुद्धयपेक्षा' कहलाती है । इन दश प्रकार की उपेक्षाओं में पडलोपेता, ब्रह्मविचारोपेक्षा, बोध्यंगोपेक्षा, तत्रमध्यत्री- पेक्षा, ध्यानापेक्षा, और पारिशुद्धयुपेक्षा अर्थ में एक है; केवल अवस्था-भेद से संग में भेद किया गया है। इसी प्रकार संस्कारोपेक्षा और विपश्यनोपेक्षा का अर्थतः एकीभाव है । यथार्थ में दोनों प्रज्ञा के कार्य हैं। केवत कार्य के भेद से संज्ञा-भेद किया गया है। विपश्यना-शान द्वारा लक्षण-त्रय का ज्ञान होने से मस्कारों के अनिल्यभावादि के विचार में जो उपेक्षा उत्पन्न होती है वह विपश्यनोपेक्षा है । लक्षण-त्रय के शान से तीन भवों को श्रादीप्त देखने वाले योगी को संस्कारों के ग्रहण में जो उपेक्षा होती है, वह संस्कारोपेक्षा है। किन्तु वीर्योपेक्षा और वेदनोपेक्षा, एक दूसरे से, तथा अन्य उपेक्षाशों से, अर्थ में भिन्न हैं । इन दश उपेक्षानों में से यहाँ ध्यानोपेक्षा अभिप्रेत है । उपेक्षा-भाव इसका लक्षण है; प्रणीत सुख का भी यह अास्वाद नहीं करती, प्रीति से यह विरक्त है और व्यापार रहित है । यह उपेक्षा-भाव प्रथम तथा द्वितीय-ध्यान में भी पाया जाता है । पर वहाँ वितर्क श्रादि से अभिभूत होने के कारण इसका कार्य अव्यक्त रहता है, तृतीय-ध्यान में वितर्क, विचार और प्रीति से अनभिभूत होने के कारण इसका कार्य परिव्यक्त होता है, इसलिए इसी ध्यान के संबन्ध में कहा गया है कि योगी तृतीय-ध्यान का लाभ कर उपेक्षा-भाव से बिहार करता है । तृतीय- ध्यान का लाभी सदा जागरूक रहता है और इस बात का ध्यान रखता है कि प्रीति से अपनीत तृतीय-ध्यान का सुत्र प्रीति से फिर सम्प्रयुक्त न हो जाय । तृतीय-ध्यान का सुख अति मधुर है। इससे बढ़कर कोई दूसरा सुख नहीं है और जीव स्वभाव से ही सुख में अनुरक्त होते हैं । इसी लिए. योगी इस ध्यान में स्मृति और सम्प्रजन्य द्वारा सुख में अासक नहीं होता और प्रीति को उत्पन्न नहीं होने देता। जिस प्रकार छूरे की धार पर बहुत सँभाल कर चलना होता है उसी प्रकार इस ध्यान में चित्त की गति का भली प्रकार निरूपण करना पड़ता है और सदा सतर्व और जागरूक रहना पड़ता है। योगी इस ध्यान में चैतसिक सुख का लाभ करता है और ध्यान से उठकर कायिक सुख का भी अनुभव करता है, क्योंकि उसका शरीर अति प्रणीत रूप से व्याम हो जाता है। 1. चार ध्यान और चार प्रारूप्य । २. थार मार्ग, चार फस, शून्यता-विहार और अनिमित्त का बिहार । ३.कामभषा, रूपमन और मरूपभव।