पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/१५७

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पंचम अध्याय विरोधी धर्मों का विशेष रूप से उपशम करने से शमय और योगी के सुखविशेष का कारण होने से यह निमित्त कहलाता है। यह मध्यम शमथ-निमित्त लीन और उद्धत-भाव से रहित अर्पणासमाधि ही है । तदनन्तर गोत्रभू-चित्त एकत्व-नय से अर्पणा-समाधि-वश समाहित-भाव को प्राप्त होता है, और इस निमित्त का अभ्यास करता है । अभ्यास-वश समाहित-भाव की प्राप्ति से निमित्त में चित्त अनुप्रविष्ट होता है। इस प्रकार प्रतिपद्विशुद्धि गोत्रभू-चित्त में इन तीन लक्षणों को निष्पन्न करती है। एक बार विशुद्ध हो जाने से योगी फिर विशोधन की चेष्टा नहीं करता और इस प्रकार यह विशुद्ध चित्त को उपेक्षा-भाव से देखता है। शमय के अभ्यास-वश शमथ-भाव को प्राप्त होने के कारण योगी समाधान की चेष्टा नहीं करता और शमथ की भावना में रत चित्त की उपेक्षा करता है । शमथ के अभ्यास और क्लेश के प्रहाण से चित्त सम्यक् रूप से एक श्रालम्बन में समाहित होता है। योगी समाहित चित्त की उपेक्षा करता है। इस प्रकार उपेक्षा की वृद्धि होती है । उपेक्षा की वृद्धि से ध्यान. चित्त में उत्पन्न एकाग्रता और प्रज्ञा बिना एक दूसरे को अतिक्रान्त किये प्रवृत्त होती हैं, श्रद्धा आदि इन्द्रियाँ (= मानसिक शक्ति) नाना क्लेशों से विनिमुक्त हो विमुक्ति-रस से एकरसता को प्रा.हा है, योगी इन अवस्थाओं के अनुकूल वीर्य प्रवृत्त करता है । स्थिति क्षण से श्रारम्भ कर ध्यान-चित्त की प्रासेवना प्रवृत्त होती है । यह सब अवस्थाएँ इस कारण निष्पन्न होती है, क्योंकि ज्ञान द्वारा इस बात की प्रतीति होती है कि समाधि और प्रज्ञा की समरसता न होने से भावना संजिष्ट होती है और इनकी समरमता से विशुद्ध होती है। इस विशोधक-ज्ञान के कार्य के निष्पन्न होने से चित्त का परितोप होता है | उपेक्षा- वश ज्ञान की अभिव्यक्ति होती है, प्रज्ञा द्वारा अर्पणा-प्रज्ञा की व्यापार-बहुलता होती है । उपेक्षा-वश नीवरण अदि नाना लेशों से चित्त विमुक्त होता है । इस विशुद्धि से और पूर्व-प्रवृत्त प्रशा-यश प्रशा की बहुलता होती है और श्रद्धा आदि धर्मों का व्यापार समान हो जाता है। इस एकरसता से भावना' निष्पन्न होती है। यह ज्ञान का मापार है । इसलिए जान के व्यापार से चित्त-परितोषण की सिद्धि होती है। प्रथम ध्यान के अधिगत होने पर यह देखना चाहिये कि किस प्रकार के प्रावास में रह कर किस प्रकार का भोजन कर और किस ईयर्यापथ में विहार कर चित्त समाहित हुअा था। समाधि के नष्ट होने पर उपयुक्त अवस्थानों को सम्पन्न करने से योगी बार बार अर्पणा का लाभी हो सकता है । इससे अर्पणा का लाभमात्र होता है पर वह चिरस्थायिनी नहीं होती। समाधि के अन्तरायों और विरोधी धर्मों के सम्यक्-प्रहाण से ही अर्पणा की चिर स्थिति होती है । उपचार-क्षण में इनका प्रहाण होता है, पर अर्पणा की चिर-स्थिति के लिए अत्यन्त प्रहाण की आवश्यकता है। कामादि का दोष और नैष्कम्य का गुण देखकर लोभ-राग का 1. "एकरसतुन भावनाति" [विसुधिमग्गो, १० १] | 'भावना विसवासनात्" [ अमिधर्मकोड, ५। "तद्धि समाहित अशल विसमस्ययं वासयति, गुणैस्तन्मयीकरणान् सन्ततः । पुष्पैतिकवासमवत्" [यशोमिनग्यास्या ] ।