पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/१३८

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बौर-धर्म-दर्शन दुष्ट और मूढ़ होता है। करने के समय जिसके अलोभ द्वेप मोह बलवान होते हैं, इतर मन्द होते हैं, वह अलुब्ध, दुष्ट और मन्द बुद्धिवाला होता है। कर्म करने के समय जिस सत्व के अलोभ अद्वेष मोह बलवान् होते हैं इतर मन्द होते हैं, वह अलुब्ध, अनुष्ध और मन्द बुद्धिवाला होता है। कर्म करने समय जिसके अलोम, द्वेष और अमोह कावान् होते हैं, इतर मन्द होते हैं वह अलुब्ध, प्रशावान् और दुष्ट होता है। कर्म करने के समय जिसके अलोभ, अद्वप और अमोह तीनों बलवान होते हैं और लोभ आदि मन्द होते हैं वह अलुब्ध, अदुष्ट और प्रज्ञावान् होता है। यहां जिरो लुब्ध कहा है वह रागचरित है, जिसे दुष्ट या मन्द बुद्धिवाला कहा है वह यथाक्रम पचरित या मोहनविन है, प्रज्ञावान् बुद्धिचरित है; अलुब्ध, अदुष्ट, प्रसन्न प्रकृतिवाला होने के कारण श्रद्धारित है। इस प्रकार लोमादि में से जिस किमी द्वारा अभिमस्कृत कर्मवंश प्रतिसन्धि होती है उसे चर्या का निदान समझना चाहिये । अब प्रश्न यह है कि किस प्रकार जाना जाय कि यह पुद्गल रागचरित है, इत्यादि । इसका निश्चय ईपिथ' (= वृत्ति ), कृत्य, भोजन, दर्शन आदि तथा धर्म-प्रवृत्ति (चित्त की विविध अवस्थात्रों की प्रवृत्ति ) द्वारा होता है । ईयर्यापथ-जो रागचरित होता है उसकी गति अकृत्रिम, स्वाभाविक होती है। वह चतुरभाव से धीरे-धीरे पद-निक्षेप करता है । वह समभाव से पैर रखता है और उठाता है, उसके पादतल का मध्यभाग भूमि का स्पर्श नहीं करता। जो द्वपरित है वह जब चलता है तब मालूम होता है मानो भूमि को खोद रहा है; वह सहसा पैर रखता है और उठाता है। पाद- निक्षेप के समय ऐसा मालूम होता है मानो पैर पीछे की अोर खींचता है । मोहचरित की गति व्याकुल होती है। वह भीत पुरुप की तरह.पैर रखता है और उठाता है। वह अग्रपाद तथा पाणि से गति को सहसा सन्निरुद्ध करता है । रागचरित पुरुष जब खड़ा होता है या बैठता है तो उसका श्राकार प्रमादावह और मधुर होता है । वं पचरित पुरुष का आकार स्तब्ध होता है और मोहचरित का अाकुल होता है। रागचरित पुरुष बिना खरा के अपना बिछौना टीक तरह से विछाता है और धीरे से शयन करता है। शयन करते समय वह अपने अंग प्रत्यंग का विक्षेप नहीं करता और उसका आकार प्रासादिक होता है । उठाये जाने पर वह चौंक कर नहीं उठता किन्तु शङ्कित पुरुष की तरह मृदु उत्तर देता है। द्वपचरित पुरुष जल्दी से किसौन किसी प्रकार अपने बिछौने को विछाता है और अवश की तरह अंग-प्रत्यंग का सहसा विक्षेप कर भूकुटि चढ़ाकर सोता है । उठाये जाने पर सहसा उठता है और क्रुद्ध होकर उत्तर देता है । मोहचरित पुरुष का बिछौना बेतरतीब होता है। वह हाथ-पैर फैलाकर प्रायः मुँह नीचा १. ईपिए (पाछि इरियापथ) = वर्ग, वृत्ति, विहार । ईयाँपथ चार है-गमन, स्थान, निषधा, शबन ।