पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/१२९

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पंचम अध्याय होकर एक पालम्बन में पिण्ड-रूप से अवस्थित होते हैं। समाधि बहुविध है। पर यदि सब प्रकार की समाधियों का वर्णन किया जाय तो अभिप्रेत अर्थ की सिद्धि नहीं होती और यह भी सम्भव है कि इस प्रकार विक्षेष उपस्थित हो। इसलिए यहाँ केवल अभिप्रेत अर्थ का ही उल्लेख किया जायगा । हमको यहाँ लौकिक-समाधि ही अभिप्रेत है । काम, रूप और श्ररूप भूमियों की कुशल-चित्तैकाग्रता को लौकिक-समाधि कहते हैं। जो एकाग्रता आर्यमार्ग से संप्रयुक्त होती है, इसे लोकोत्तर-समाधि कहते हैं, क्योंकि वह लोक को उत्तीर्ण कर स्थित है । लोकोत्तर-समाधि का भावना-प्रकार प्रज्ञा के भावना-प्रकार में संग्रहीत है। प्रज्ञा के मुभावित होने से लोकोत्तर समाधि की भावना होती है। इसलिए, लोकोत्तर समाधि की भावना के विग्य में यहाँ कुछ नहीं कहा जायगा। यह प्रज्ञा-स्कन्ध का विषय है। यहां हम केवल लौकिक ममाधि का ही सविस्तर वर्णन करेंगे। हमारे अभिप्रेत अर्थ में 'समाधिः 'कुशलचित्त की एकागना' को कहते हैं। अर्थात् चिन की यह एकाग्रता जो दोप-रहित है और जिसका विपाक मुग्यमय है । इस लौकिक समाधि के मार्ग को शमथ-यान कहते हैं । लोकोत्तर ममाधि का मार्ग विपश्यना-यान कहलाता है। पूर्व हमके कि हम लौकिक ममाधि के भावना-प्रकार का विस्तार से वर्णन करें, हम इम स्थान पर शमथ-यान (3 मार्ग ) का संक्षेप में निरूपण करना अावश्यक ममझते हैं । शमथ का अर्थ है-पांच नीवरणों (सं० निवारण ) अर्थात् वित्रों का उपशम । 'पञ्च नीवरणानं समनट्रेन समर्थ विघ्नों के शमन से चित्त की एकाग्रता होती है। इसलिए शमथ का अर्थ 'चित्त की एकाग्रता भी है । ( समथो हि चित्तेकग्गता--अंगुत्तर निकाय?कथा, बालवग्ग, मुत्त ३ ) शमथ का मार्ग लौकिक समाधि का मार्ग है। दूसरा मार्ग विपश्यना का मार्ग है। इसे लोकोत्तर-समाधि भी कहते हैं। विनों के अर्थात् अन्तरायों के नाश से ही लौकिक समाधि में प्रथम ध्यान का लाभ होता है। प्रथम ध्यान में पांच अङ्गों का प्रादुर्भाव होता है । दूसरे तीसरे ध्यान में पाँच अङ्गों का अतिक्रमण होता है । नीवरण' इस प्रकार है-- कामचन्द, व्यापाद, स्यान-मिद्ध, औद्धत्य-कौकृत्य, विचिकित्सा । कामछन्द 'विषयों में अनुराग को कहते हैं । जब चित्त नाना विपयों से प्रलोभित होता है तो एक आलम्बन में समाहित नहीं होता ! 'व्यापाद! हिमा को कहते हैं । यह प्रीति का प्रतिपक्ष है । 'स्त्यान' चित्त की अकर्मण्यता और 'मिद्धः बालस्य को कहते हैं । वितर्क स्यान-मिद्ध का प्रतिपक्ष है । औद्धत्य का अर्थ है 1-पातम्ल योगदर्शन में योग के अन्तरायों का वर्णन निम्नलिखित सूत्र में पापा व्याभिस्त्यानसंशयप्रमादासस्याविरतिभान्तिदर्शनालप-भूमिकरवानवस्थितत्वानि पिस- विक्षेपास्तेऽन्तरायाः [समाधिपाद सूत्र ३०] इनमें से अधिरवि (कामहन्द), मालस्य ( = मिर.), अमवस्थिताल (नोवत्य) संशय (-विचिकित्सा ) और स्त्यान पाँच मीधाणों में भी पाये जाते हैं।