पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/१०९

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बत्तीय अध्याय यावत् बालक सुख-दुःखादि के कारण को समझने में समर्थ नहीं होता, तब तक की अवस्था 'स्पर्श है। (७) वेदना---मैथुन से पूर्व, यावत् मैथुन-राग का समुदाचार नहीं होता, तब तक की अवस्था 'वेदना है। (6) तृष्णा-भोग और मैथुन की कामना करने वाले जीव की अवस्था तृष्णा है । रूपादि कामगुण और मैथुन के प्रति राग का समुदाचार 'तृष्णा' की अवस्था है । इसका अन्त तब होता है जब इस राग के प्रभाव से जीव भोगों की पर्येष्टि प्रारम्भ करता है। (e) उपादान–'उपादान' का तृष्णा से विवेचन करते हैं। यह उस जीव की अवस्था है, जो भोगों की पर्येष्टि में दौड़ धूप करता है। वह भोगों की प्राप्ति के लिए सब ओर प्रधावित होता है। (१०) भव-उपादानवश सत्र कर्म करता है, जिसका फल अनागत-भत्र है । 'भव' कर्म है जिसके कारण जन्म होता है। यह 'कर्मभव है। जिस अवस्था में जीव कम करता है, वह 'भव है। (१) जाति-यह पुनः प्रतिसंधि है। मरणानन्तर प्रतिसंधि-काल के पंच स्कन्ध 'जाति हैं । प्रत्युत्पन्न-भत्र की समीक्षा में जिस अंग को 'विज्ञान' का नाम देते हैं; उसे अनागत भव की समीक्षा में 'जाति' की संज्ञा मिलती है । (१२) जरामरण-वेदनांग तक जरामरण है । प्रत्युत्पन्न-भव के चार अंग-नामरूप, पडायतन, स्पर्श, वेदना-अनागत-भव के संबन्ध में 'जरामरण' कहलाते हैं । अंगों का नाम-संकीर्तन उस धर्म के नाम से होता है, जिसका वहाँ प्राधान्य है। प्रतीत्य- समुत्पाद की देशना पूर्वान्त, अपरान्त और मध्य के संमोह की विनिवृत्ति के लिए है । इसी हेतु से प्रतीत्य-सभुत्पाद की देशना त्रिकाण्ड में है । यह संमोह कि मैं अतीत श्रध्व में था या नहीं, मह संमोह कि मैं अनागत अध में हूँगा या नहीं, यह संमोह कि हम कौन है, यह क्या है, इत्यादि अविद्या 'जरामरण के यथाक्रम उपदेश से विनष्ट होता है। प्रतीत्य-समुत्पाद के तीन अंग क्लेश हैं, दो अंग कर्म हैं; सात वस्तु और फल है यह प्रश्न हो सकता है कि जब प्रतीत्यसमुत्पाद के बारह अंग हैं, तो संसरण की आदि कोटि होगी, क्योंकि अविद्या का हेतु निर्दिष्ट है । संसरण की अन्त कोटि भी होगी, क्योंकि जरामरण का फल निर्दिष्ट नहीं है ? ऐसा नहीं है । क्लेश से क्लेश और कर्म की उत्पत्ति होती है । इनसे वस्तु की, वस्तु से पुनः वस्तु और क्लेश की उत्पत्ति होती है। भवागों का यह नय है । अविद्या जो शीर्ष स्थान में है अहेतुकी नहीं है । वह भी प्रत्ययवश उत्पन्न होती है । वह प्रकृतिवादियों की प्रकृति के तुल्य अकारण नहीं है । यह लोक का मूल कारण नहीं है । उसका भी कारण है । इस प्रकार भवचक्र अनादि है। कर्मक्लेश-प्रत्ययवश उत्पत्ति, उत्पत्तिका कर्म- क्लेश, कर्मक्लेश-प्रत्ययवश पुनरुत्पत्ति होती है। किन्तु यदि हेतु-प्रत्यय का विनाश हो तो, हेतु-प्रत्यय से अभिनित्त की उत्पत्ति नहीं होगी-यथा दग्ध-बीज से अंकुर की आपत्ति नहीं होती।