पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/१०६

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15 बौद-धर्म-दर्शन है; विहार के पार्णिप्रवेश का परिभोग भी उसके लिए वर्जित है । भगवत्-श्रापन्न भिक्षु की उपमा मस्तकच्छिल तालवृक्ष से देते हैं जो विरूढ़ि, वृद्धि, उपचय, विस्तार के लिए अभव्य हो जाता है । यथार्थ भिक्षु वह है, जिसने क्लेशों का भेद किया । शिक्षात्रय निर्वाण के लिए उद्योग करने वाले भिक्षु को सब प्रकार के अभिनिवेश का परित्याग करना चाहिये। रति-श्ररति, जय-पराजय, पाप-पुण्य सबसे उसे परे होना चाहिये। जिस मार्ग से दुःख का निरोध होता है, उसमें अभिष्वंग नहीं होना चाहिए । भगवान् कहते हैं कि धर्म कोलोपम, है । यह निस्तार के लिए है, ग्रहण के लिए नहीं । इसलिए, जो ज्ञानी है,उनको धर्म का भी परित्याग करना चाहिये, अधर्म का भी। हम ऊपर कह चुके हैं कि भगवत् की चतुःसूत्री है। यह चार आर्य-सत्य कहलाते हैं । दुःख क्यों होता है और दुःख के निरोध का उपाय क्या है, यह बुद्ध ने बताया है । बौद्धों की साधना त्रिशिक्षा कहलाती है--शोल-शिवा (अधिशील ), समाधि-शिक्षा ( अधिचित्त), प्रज्ञा ( अधिप्रज्ञा )। यही विशुद्धि का मार्ग है । सभी जीव तृष्णारूपी जटा से विजटित हैं । जिस प्रकार वेणुपद गुल्मादिलता से भीतर-बाहर सब ओर अाच्छादित और विनद्ध होता है, उसी प्रकार सब जीव तृष्णा से आच्छादित होते हैं। तृष्णा रूपादि पालम्बनक्श बार-बार उत्पन्न होती है। तृष्णा का विनाश किये बिना दुःख का अत्यन्त निरोध नहीं होता । विगत-तृष्ण ही निर्वाण पद का लाभ करता है । इस तृष्णा-जा का विनाश करने से ही विशुद्धि होती है । इस विशुद्धि के अधिगम का क्या उपाय है । संयुत्त-निकाय में भगवान् कहते हैं कि जो मनुष्य शील में प्रतिष्ठित है, समाधि और विपश्यना (प्रजा) की भावना करता है, वह प्रज्ञावान और वीर्यवान् भितु इस तृष्णा-जा का नाश करता है। शील शासन की मूल भित्ति; अाधार है। इसलिए शील शासन का श्रादि है, यही शासन की प्रादि-कल्याणता है । सर्वपाप से विरति ही शील है ( सन्त्र पापस्स अकरणं)। कुशल ( शुभ ) में चित्त की एकाग्रता समाधि है । यह शासन का भव्य है। प्रशा, विपश्यना शासन का पर्यवसान है । जब योगी प्रज्ञा से देखता है कि संस्कार अनित्य है, सब संस्कार दुःख हैं, सब धर्म अनात्म हैं, तब दुःख का निरोध होता है। यह प्रशा इष्ट अनिष्ट में तादि-भाव ( समभाव ) का आवाहन करती है। जैसे शैल वात से ईरित नहीं होता, वैसे ही पण्डित निन्दा और प्रशंसा से विचलित नहीं होता। शोल से अपाय ( पाप ) का अतिकम होता है, समाधि से कामधातु का और प्रजा से सर्वभव का समतिकम होता है। समाधि मन्शों का निष्कम्भन करती है अर्थात् उनको अभिभूत करती है और प्रशा उनका समुच्छेद करती है । एक दूसरी दृष्टि से शील से दुचरित्र का, समाधि से तृष्णा-संक्लेश का और प्रशा से दृष्टि-संक्लेश का विशोधन होता है । .. पाकि-कुस्खा, संस्कृत-कोछ । तृण, काष्ठ, शाखा, पक्षाश को लाकर के बांधते और इसके बारे नदी पार करते है I