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इसमें सर्वथा नहीं हैं। आचार्य जी ने प्रत्येक सिद्धान्त को सम्प्रदायगत प्रामाणिक शास्त्रों के माध्यम से प्रतिपादित किया है। जैसे - आर्य स्थविरवादियों का मत पालि त्रिपिटक, उनकी अट्ठकथा और टीकाओं के आधार पर, इसी तरह महायान के सिद्धान्तों का सामान्यतः संस्कृत में विद्यमान आगम और शास्त्रों के आधार पर, विशेषत: आचार्य नागार्जुन की मूल माध्यमिककारिका, मैत्रेयनाथ के महायानसूत्रालंकार, वसुबन्धु के अभिधर्मकोश एवं विज्ञप्तिमात्रतासिद्धि, चन्द्रकीर्ति की प्रसन्नपदावृत्ति आदि भारतीय शास्त्रों के आधार पर निरूपण किया है। इसी प्रकार चाइनीज और फ्रेंच भाषाओं में निबद्ध ग्रन्थों तथा आधुनिक विद्धानों के अनेक समीक्षात्मक एवं अनुसन्धानात्मक ग्रन्थों का भी आलोडन कर उनका उपयोग किया गया है। ग्रन्थ में बौद्ध धर्म के अभ्युदय से लेकर बौद्ध दर्शन के सामान्य एवं महत्त्वपूर्ण मुद्दों, जैसे - अनित्यता, अनात्मता, अनीश्वरवाद, कर्मफलव्यवस्था, प्रतीत्यसमुत्पाद आदि का प्रामाणिक प्रतिपादन किया गया है। इस ग्रन्थ में स्थविरवाद, वैभाषिक, सौत्रान्तिक, विज्ञानवाद एवं माध्यमिक सिद्धान्तों की तथा बौद्ध न्यायशास्त्र की व्यवस्था का प्रतिपादन नातिसंक्षेप और नातिविस्तार से प्रामाणिक आगम-स्रोतों का आश्रय लेकर पाँच परिच्छेदों में किया गया है। इसके परिणामस्वरूप भारत में बुद्ध-शासन के पुनरुज्जीवन के कार्यक्रमों में अद्वितीय योगदान सिद्ध हुआ है। भारतवर्ष में बौद्ध दर्शन के अध्ययन में इससे अत्यधिक लाभ पहुंचा है। अध्येताओं और शोधार्थियों के लिए अत्यन्त आवश्यक एवं उपयोगी होने से इस ग्रन्थ का इस समय पुनः प्रकाशन विशेष रूप से स्वागत योग्य है। इससे सम्पूर्ण जगत् के अत्यन्त लाभ होने की शुभकामना के साथः

दलाई लामा