सोचते कि जो कुछ हम करते हैं वह यथार्थ है अथवा अयथार्थ। उलटा अपनी भूलको समर्थन करनेके लिए नानाप्रकारके अयुक्ति सङ्गत कोटिक्रम लड़ाते हैं और तद्वारा शंका समाधान करने बैठते हैं।
भ्रमात्मक धर्मभीरुताके कारण ये हैं:-आनन्दोत्पादक तथा विषयोद्दीपक विधि और संस्कार; औरोंको दिखलाने के लिए दाम्भिक धर्म्माचरणकी अधिकता; परम्परागत कथा कहावतके विषयमें आतिशय पूज्यभाव; स्वार्थसाधनके लिए धर्म्माधिकारियोंकी युक्ति प्रयुक्तियां; कर्ताके निंद्य और अविश्वसनीय कर्मोंकी ओर दृष्टि न करके उसके सदुद्देशकी प्रशंसा; मानुषिक कृत्योंसे ऐश्वरीय कृत्योंका अनुमान (इससे तो अनुचित कल्पनाओंकी उत्पत्ति हुए बिना नहीं रहती) और असभ्यकाल–विशेषकरके जिसकालमें अनेक अरिष्ट और संकट आते हैं वह। भ्रमिष्ट धर्मभीरुताको उत्पन्न करनेवाले यही सत्र कारण हैं।
अनुचित धर्मभीरुताके ऊपर यदि किसीप्रकारका परदा न पडाहो तो वह कुरूप देख पड़ती है। बंदरकी आकृति मनुष्यकीसी होनेसे जैसे वह कुरूप देख पड़ता है वैसेही भ्रमात्मक धर्मभीरुताभी धर्मश्रद्धाके समान देख पडती है अतएव वह और भी घृणित है। और, जैसे अच्छाभी मांस कालान्तरमें कीटमय होजाता है वैसेही प्रथम स्थापन किएगए उत्तम और सदाचार सम्पन्न भी नियम कुछ दिनमें छोटे छोटे संस्कारोंमें विभक्तहोकर अपना निन्दनीय रूप प्रकट करते हैं।
भ्रमात्मक धर्मभीरुतासे बचनेका अतिशय प्रयत्न करनाभी एक प्रकारकी अनुचित धर्म भीरुता है। परम्परासे जो प्रथा चली आई है उसे छोंड़ तत्प्रतिकूल आचरण करनेकी ओर मनुष्योंकी सहसा प्रवृत्ति होना भ्रमसञ्जात धर्मभीरुताके अतिरिक्त और क्या है? अतएव यह ध्यानमें रखना चाहिए कि बुरेके साथ भलाभी (जैसे बुरे विरेचनमें होताहै) न निकल जावे। जब सर्वसाधारणकी प्रवृत्ति धर्मसंशोधनकी ओर झुकती है तब बहुधा अनुचितके साथ उचित भी हाथसे जाता रहता है।