पृष्ठ:बेकन-विचाररत्नावली.djvu/८८

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
(८३)
भाग्योदय।


कुछ कुपित सा होताहै उस समय क्रोध आनेकी कोई बात कहनेसे वह औरभी करालरूप धारण करता है। परन्तु जिस समय मनुष्यका मन प्रसन्न होता है उस समय यदि क्रोधोत्पादक भी कोई बात कही जाय तो उसका प्रतीकार शीघ्रही होसकता है। ऐसे अवसरपर यह कहकर दूसरेके क्रोधको रोक सकते हैं कि अमुक मनुष्यने जो कुछ कहा वह आपका अपमान करनेके हेतुसे नहीं कहा किन्तु भूलसे कहा अथवा और किसी कारणसे जो तुमको समञ्जस जान पड़ै तुम कहसकते हो।


भाग्योदय।

पूर्वजन्मजनितं[] पुराविदः कर्म दैवमिति सम्प्रचक्षते।
उद्यमेन तदुपार्जितं चिराद्दैवमुद्यमवशं न तत्कथम्।

स्फुट।

इसको कौन नहीं स्वीकार करैगा कि मनुष्य का भाग्योदय बहुधा आकस्मिक घटनाओं पर निर्भर रहता है? बड़े बड़े लोगोंका अनुग्रह योग्यता प्रकाश करनेका अवसर दूसरोंका मृत्यु इत्यादि बातें भाग्योदय का कारण समझना चाहिए। परन्तु पूर्वापर विचार करनेसे यही कहना पड़ता है कि मनुष्य का सौभाग्य मनुष्यही के हाथमें है। एक कविने कहा है कि सौभाग्यरूपी मंदिर का बनानेवाला शिल्पकार मनुष्यही है। यह उक्ति बहुत यथार्थ है।

सौभाग्यको उदय करनेवाली जितनी आकस्मिक घटनाएं हैं उन सबमेंसे भाग्योदय का मूल कारण "एक की भूल-दूसरे का लाभ है"। दूसरे के प्रमाद और दूसरे की असावधानतासे जितना लाभ होता है उतना अन्यद्वारा नहीं होता। किसीने ठीक कहा है कि सर्प जबतक दूसरे सर्पको नहीं खाजाता तबतक वह स्वयं बड़ा और भयङ्कर


  1. पूर्वजन्ममें किएहुए कर्मको पुरातत्त्ववेत्ता दैव कहते हैं। यह कर्म जिसे वह दैव कहते है चिरकाल उद्योगहीसे उपार्जित होता है,–अतः दैव भी उद्यमही के वश है यह क्यों न कहना चाहिए।