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बेकन-विचाररत्नावली।


ऊपर जो उदाहरण दिए गए उनका यह तात्पर्य है कि मन और शरीर दोनोंके ऊपर रूढ़िका भारी प्रभाव होता है। अतएव जीवनमें रूढ़िका जब इतना प्राबल्य है तब मनुष्योंको चाहिए कि वे अच्छी अच्छी बातोंको करनेका स्वभाव डालें। बाल्यावस्थामें जो स्वभाव पड़जाता है वह दृढ़ होजाता है। उसीको शिक्षा कहते हैं। विद्याध्ययनके विषयमें भी यही नियम चरितार्थ होता है। अल्पवयमें जितना शीघ्र विद्या आती है उतना शीघ्र तरुण वयमें नहीं आती। अल्पवयमें जैसे चाहिए वैसे उच्चारण जिह्वासे किए जासकते हैं और शरीरकी सन्धियां और अवयव जैसे चाहिए वैसे, चपलताके प्रत्येक काममें, प्रवृत्त किए जा सकते हैं। यह बात तरुणवयमें नहीं पाईजाती। इस नियममें एक अपवाद है; वह यह है कि, जिन मनुष्योंने अपने मनके सिद्धान्त निश्चित नहीं करलिए अतएव जो सदैव नवीन और उपयोगी बातोंके ग्रहण करनेको प्रस्तुत रहते हैं, वे अधिक वयस्क होनेपर भी उपयोगी कलाकौशलको सीख सकते हैं। परन्तु विरलेही इस प्रकारके होते हैं; यह स्मरण रखना चाहिए।

व्यक्तिविशेषके अभ्यासका बल जब इतना है तब दस पांच मनुष्योंके समाजमें उसका बल और भी अधिक समझना चाहिए। समाजमें औरोंके उदाहरणसे शिक्षा मिलती है; उनके समागमसे सुख होता है; उनसे अधिक उत्कर्ष पानेकी इच्छा रहती है। और उनके द्वारा प्रशंसा की जानेसे प्रतिष्ठा भी बढ़ती है। अतएव ऐसे स्थलमें अभ्यासका बल सर्वतोपरि देख पड़ता है। सत्य है; मनुष्यके स्वभावजात जितने अच्छे अच्छे गुण हैं वे सुव्यवस्थित और शिक्षित समाजहीके अवलम्बनपर निर्भर हैं; उसीका आश्रय लेनेसे उनकी विशेष वृद्धि होती है। लोकसत्तात्मक राज्य और उत्तम राज्यप्रणाली, बोएहुए सद्गुणरूपी बीजको पुष्टमात्र करते हैं; परन्तु स्वयं उस बीजमें कोई विशेषता नहीं उत्पन्न कर सकते।