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द्रव्य।


यथार्थमें वह कवचका काम नहीं देसकता। सत्य तो यह है कि, द्रव्यके कारण जितने मनुष्योंका नाश हुवा है उनकी अपेक्षा रक्षा बहुत कम कीहुई है।

जिसके उपार्जनसे मनुष्य मदान्ध होजाता है ऐसी सम्पत्तिसे दूर रहना चाहिए। सम्पत्ति उतनीही उपार्जन करनी चाहिये जितनी न्यायसे मिले; जिसका उपयोग गर्वरहित होकर होसकै; जिसका दान प्रसन्नतापूर्वक किया जासकै; और जिसके छोडनानेमें असन्तुष्ट न होना पड़े अर्थात् दुःख न हो। विरक्त संन्यासियोंके समान द्रव्यका तिरस्कार न करना चाहिये। परन्तु द्रव्यको सञ्चित करके औरोंके लिए छोडजानेके लिए भी उसे न इकट्ठा करना चाहिए। देखिए सिसरोंने रैबीरियस[] पास्थमसके विषयमें कैसा अच्छा कहा है। वह कहता है कि, "इस सरदारने जो इतने कष्टसे द्रव्योपार्जन किया वह लोभवश नहीं किया; किन्तु इस लिए किया कि उसके द्वारा वह परोपकार करनेमें समर्थ होवे"। एक बारही धनाढ्य होनेका प्रयत्न न करना चाहिए। सालोमनका कथन है कि, "जो शीघ्र धनी होजाता है वह पापरहित नहीं होता"। पुरातन कवियोंने कहा है कि, ज्यूपिटर (गुरु-बृहस्पति) जब प्लूटस (कुबेर) को भेजताहै तब वह लँगड़ाते हुए धीरे धीरे आता है; परन्तु जब प्लूटो (यम) उसे भेजता है तब वह दौड़ता हुवा वेगसे आता है। अर्थात् सन्मार्ग और सुपरिश्रमसे जो द्रव्य मिलता है वह धीरे धीरे एकत्र होता है; परन्तु किसी सम्बन्धीके न रहने, अथवा मृत्युपत्रादि द्वारा जो द्रव्य मिलता है वह अनायास एक बारही आजाता है। प्लूटोको पिशाच मानकर यह दृष्टान्त उसके विषयमें भी चरितार्थ किया जा सकता है, क्योंकि,


  1. रैबीरियस पास्थमस रोमका एक सरदार था। इसने ईजिप्टके राजाको अपार धन ऋण दिया था परन्तु वह राजा ऐसा कृतघ्न निकला कि उसने ऋण तो चुकाया नहीं उलटा इसे बन्दी बनालिया। वहांसे यह किसी प्रकार बडे कष्टसे छूटकर फिर अपने देशको आनेमें समर्थ हुवा।