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बेकन-विचाररत्नावली।
प्रशंसा १८.

अद्यापि[१] दुर्निवारं स्तुतिकन्या वहति कौमारम्।
सद्भयो न रोचते साऽसन्तस्तस्यै न रोचन्ते॥

आर्या सप्तशती।

प्रशंसा अच्छे गुणों की छाया है; परन्तु जिन गुणों की वह छाया है उन्हीं के अनुसार उसकी योग्यता भी होती है। यदि सामान्य [तुच्छ] जनों के मुख से प्रशंसा हुई तो वह विशेष करके झूठी और निरर्थक होती है। सुशील और सद्गुण सम्पन्न मनुष्योंकी अपेक्षा अभिमानी और वृथा बड़ाई हांकने वालों की प्रशंसा बहुधा विशेष होती है। तुच्छ मनुष्य अनेक उत्तमोत्तम गुणों को समझही नहीं सकते। साधारण छोटे मोटे गुणों की वे प्रशंसा करते हैं; मध्यम प्रकार के गुणों को देखकर उन्हैं आश्रर्य होता है; परन्तु उच्च श्रेणी के जो सद्गुण हैं वे उनके ध्यान में भी नहीं आते। दम्भ और सद्गुणों के अभ्यास मात्रही से वे सन्तुष्ट रहते हैं।

सत्यतो यह है कि कीर्ति नदी के प्रवाह के समान है। जैसे नदी के प्रवाह में हलकी तथा फूली हुई वस्तु ऊपर तैरा करती हैं और जड़ तथा गरुई नीचे डूब जाती हैं; उसीप्रकार प्रशंसारूपी प्रवाह में उत्तमोत्तम गुण डूबे रहते हैं, केवल छोटे छोटे गुण ऊपर दिखलाई देतेहैं; अतः वही लोगों के मुखसे सुनाई पड़ते हैं। परन्तु यदि लोकमान्य और विचारशील मनुष्यों ने प्रशंसा की तो उसे अवश्यमेव अपनी कीर्ति समझना चाहिये। इसप्रकार की प्रशंसा सुवासिक तैल के समान सब ओर शीघ्र फैल जाती है। सुवासिक पुष्पों की उपमा न देकर सुवासिक तैल की उपमा इस लिए दी हैं, क्योंकि पुष्पों के सुवास की अपेक्षा तैल का सुवास आधिकतर स्थायी होता है


  1. स्तुति रूपी कन्या अभीतक अनिवार्य कौमार भावको धारण कररही है अर्थात् उसे अभीतक वरही नहीं मिला। कारण यह है कि सत्पुरुष जो हैं उन्हें वह अन्छी नहीं लगती और असत्पुरुष जो हैं वे उसे नहीं अच्छे लगते हैं।