मनकी परस्पर ऐक्यता है। यदि इनमें से एक की प्रवृत्ति बुरे मार्ग की ओर होती है तो दूसरे की भी उसी ओर झुकती है। परन्तु मनुष्य में इतना शरीरसामर्थ्य है और मनोवृत्तियों के स्वीकार अथवा अस्वीकार करने का इतना अधिकार है कि शिक्षा और सद्गुण रूपी सूर्य के सन्मुख स्वाभाविकवृत्तिरूपी तारे बहुधा फीके पड़जाते हैं। इसलिये यह समझने की अपेक्षा कि कुरूपता धोखा खाने का एक चिह्न है, यह समझना अच्छा है, कि वह फल निप्पत्ति का आदि कारण है।
जिस कुरूप मनुष्यमें कोई ऐसा दुर्गुण होता है जिसके कारण लोग उससे घृणा करतेहैं, उसमें एक आध स्वाभाविक बात ऐसीभी होती है जिसके द्वारा वह लोगोंके तिरस्कार का परिहार करके अपनी रक्षा करनेमें समर्थ होताहै। अतएव सारे कुरूप मनुष्य अत्यन्त धृष्ट होते हैं। प्रथमतः वे अपनी निन्दा का प्रतीकार करनेके लिए धृष्टता दिखलाते हैं; परन्तु धीरे धीरे उस प्रकार का बर्ताव उनका स्वाभाविक धर्म होजाता है। एतादृश स्वभाव कुरूप मनुष्योंमें उद्योग वृत्ति को भी जागृत कर देता है; परन्तु उनका उद्योग प्रायः दूसरों की न्यूनता को ढूंढनेही के लिए होता है; क्योंकि ऐसा करनेसे उनको दूसरों से बदला लेने का अवसर मिलता है। इसके आतरिक्त यह भी है, कि उनसे जो बढ़े चढ़े होते हैं वे यह समझ कर कि इन्हें जब चाहैंगे तभी परास्त करैंगे मत्सर करना छोड़ देते हैं। इसका यह फल होता है कि उनसे स्पर्धा करनेवाले और उनके बराबर काम करने की इच्छा रखने वाले लोग तब तक चुप रहते हैं जब तक वे उन्हें अपने से अच्छी दशा में नहीं देख लेते; क्योंकि वे यह कभी नहीं समझते कि कोई उनसे अच्छी स्थिति को पहुँच जावैगा। अतएव जो लोग चतुर हैं उनमें कुरूपता का होना उनके उत्कर्ष का कारण समझना चाहिए।
प्राचीन काल में (और किसी किसी देश में अब भी) राजा महाराजा खोजा लोगों का अधिक विश्वास करते थे; क्योंकि वे