सत्कार करेंहींगे, इसलिए उनसे आत्मत्व प्रकट करते हुए सस्नेह भाषण करना अच्छा है। सभीका अत्यादर करनेसे और योग्यायोग्य का विचार न करके सभीको सभी काम करनेकी आज्ञा देनेसे मनुष्यका मान कम होजाता है। दूसरे लोगोंसे उनका अभिप्राय पूँछना उचित है; परंतु पूंछते समय ऐसा भास न होना चाहिए कि यह मनुष्य इस बातको अन्तःकरणसे बुद्धिपूर्वक नहीं, किन्तु योंहीं, पूछता है। दूसरोंके कथनका अनुमोदन करना अच्छा है, परन्तु हां में हां मिलाते समय कुछ अपनी ओरसेभी मिला देना चाहिए। उनके मतको स्वीकार करना हो तो वैसा करते समय कुछ भेद रखना चाहिये। उनकी प्रवृत्त की गई कोई बात माननी हो तो अपनी ओर से एक आध 'यदि ' ' परन्तु ' लगा देना चाहिये। तथैव उनके द्वारा निश्चित की गई कोई व्यवस्था अंगीकार करनी हो तो उसकी पुष्टिके लिये अपना हृद्गत कारण व्यक्त करना चाहिए।
शिष्टाचारका अनुसरण करनेमें मनुष्यको उसकी सीमाका अतिक्रमण करना योग्य नहीं है। अत्याधिक उपचार करनेसे जो लोग द्वेष करने लगते हैं वे अन्य सद्गुणोंकीओर किंचिन्मात्र भी ध्यान न देकर,यह कहने लगतेहैं, कि अमुक मनुष्यकी जो इतनी मानमर्यादा बढी है वह केवल मिष्टभाषण और शिष्टाचार का फल है। कामकाज के समय अत्यन्त आदरसत्कारपूर्वक वर्ताव करने अथवा आत सूक्ष्मतया समय और प्रसंग ढूंढते रहने से हानि होती है। सालोमन ने कहा है कि "जो मनुष्य इसीविचार में रहता है कि वायु किस ओर बहताहै वह खेत बोने में कभी समर्थ नहीं होता और जो मेघमंडल को देखनेही में लगा रहता है वह खेत काटने में समर्थ नहीं होता"। जो बुद्धिमान् होते हैं वे सहजही प्राप्तहुए प्रसंगों की अपेक्षा अपनी बुद्धिसे अधिक प्रसंग उत्पन्न करते हैं। मनुष्यों का वर्त्ताव उनके पहिनने के कपड़ों के समान होना चाहिए। कपड़ों के ढीले ढाले होने से जैसे हाथपैर अपना अपना काम बिना प्रयास के यथोचित कर सकते हैं; संकुचित नहीं रहते;