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विद्याध्ययन।


कुछ पुस्तकैं ऐसी होती हैं जिनका एक आध भाग पढ़कर छोड़ देना चाहिये; कुछ को समग्र पढ़ना चाहिये, परंतु ध्यान से न पढ़ना चाहिये; और कुछको मनःपूर्वक समझ समझकर साद्यन्त पढ़ना चाहिये। कुछ पुस्तकोंको किसी दूसरे से अवलोकन कराके तत्कृत टिप्पणीमात्र देखलेनी उचित है; परन्तु यह नियम, ऐसी वैसी निःसार पुस्तकें जिनमें कोई महत्त्वकी बात नहीं है, उन्हीं के विषय में प्रयोग करना ठीक है; अन्योंके विषय में नहीं।

पुस्तकावलोकनसे मनुष्य बहुश्रुत होता है; भाषणसे उसको समयसूचकता प्राप्त होती है; और लिखनेसे वस्तुमात्रकी यथार्थता उसके समझ में आती है। इसलिये जो मनुष्य कम लिखता है उसकी स्मरणशक्ति विशेष अच्छी होती है; जो कम बोलता है उसकी समयसूचकता विशेष प्रज्वलित रहती है; और जो कम पढ़ता है उसमें, जिस बात को वह नहीं जानता उसे जाननेका सा भाव दिखानेके लिये, कापट्य विशेष वास करता है। इतिहास पढ़ने से मनुष्य बुद्धिमान् होता है; काव्य पढ़नेसे बातचीत करने में प्रवीणता आती है; गणित पढ़ने से बुद्धि तीक्ष्ण होती है; पदार्थविज्ञान पढ़नेसे विचारशक्ति गहन होती है; नीतिशास्त्र पढ़नेसे गंभीरता आती है; और तर्क तथा साहित्यके अध्ययन से वादप्रतिवाद करनेका सामर्थ्य प्राप्त होता है।

मनुष्य मात्र में बुद्धिगत ऐसा कोई दोष नहीं है जिसका प्रतीकार उचित अभ्यासके द्वारा न होसकताहो। शारीरिकव्याधि दूर करने के लिये जैसे अनेक प्रकारके व्यायाम हैं वैसेही मानसिक व्यथाओंको दूर करने के लिये भी अनेक उपाय हैं। गेंद खेलना, पथरी और मूत्र रोग के लिये अच्छा है; शिकार खेलना, फेफड़ा और छाती के रोगों के लिये हितकर है; धीरे धीरे चलना, उदरव्याधि के लिए लाभदायक है; और घोड़े की सवारी करना, शिरोरोग के लिये आरोग्यप्राय है-इत्यादि। इसीप्रकार चंचल चित्तवाले मनुष्य को गणितशास्त्र का अभ्यास करना चाहिये, क्योंकि गणित के किसी