निरीश्वरवादके उत्पन्न होने के कई कारण हैं। एक धर्म्मकी अनेक शाखायें होजाना पहला कारण है। दोही शाखायें होनेसे दोनों के अनुयायी जनोंका, परस्परको देखकर, उत्साह बढ़ता रहता है; परन्तु अनेक शाखाओंके होनेसे निरीश्वरता अवश्य उत्पन्न होतीहै। नास्तिकताके प्रादुर्भूत होनेका दूसरा कारण धर्म्माधिकारियोंका दुराचरण है। धर्म्माधिकारियोंके अनाचारसे जो दशा होतीहै उसका सेन्ट बरनार्ड नामक महात्माने अच्छा वर्णन किया है। वह कहता है "बात इस स्थितिको पहुँच गई है कि इस समय यह भी नहीं कह सकते कि जैसे सर्व साधारण मनुष्य हैं वैसे धर्म्माधिकारी भी हैं; क्योंकि सर्वसाधारणका वैसा बुरा बर्त्ताव नहीं जैसा धर्माचार्योंकाहै"। धार्म्मिक विषयोंको धिक्कार दृष्टिसे देखना और उनकी हेलना करना नास्तिकताकें प्रवेश होनेका तीसरा कारण है। ऐसा करनेसे लोगोंकी श्रद्धा धीरे धीरे धर्मसे उठ जाती है। विद्याकी अधिक वृद्धि होना नास्तिकता उत्पन्न होनेका अन्तिम कारण है–विशेष करके उस समय जब देशमें शान्ति और सम्पत्ति दोनों वास करती हैं। ठीकही है; धर्म्मकी ओर मनुष्योंकी. प्रवृत्ति तभी होती है जब उनपर विपत्ति आती है और तंज्जनित अनेक कष्ट उनको सहने पड़ते हैं।
जो ईश्वरका अस्तित्व नहीं स्वीकार करते वे मनुष्यकी श्रेष्ठताको हानि पहुँचाते हैं। जिन पञ्चमहाभूतोंसे पशुओंका शरीर बना है उन्हींसे मनुष्यका भी बना है। मनुष्यका पार्थिव शरीर पशुओंके शरीरसे निकट सम्बन्ध रखता है। अतः आत्मोन्नतिद्वारा, मनुष्य यदि अपनेको ईश्वरका निकटवर्ती नहीं बना सकता तो वह मनुष्य नहीं किन्तु एक महार्निद्य और नीच पशु है। निरीश्वरता स्वीकार करनेसे उदारता और आत्मोत्कर्ष दोनों का नाश होजाता है। इस