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निरीश्वरमत।


और आनन्द पूर्वक कालातियान करते हैं–यह यपीक्यूरस[]का वचन है। उस पर यह दोषारोप किया जाता है कि यह वाक्य जो उसने कहा है वह ठीक नहीं कहा। कहते हैं कि यपीक्यूरसका आभ्यन्तरिक मत तो यह था कि ईश्वर नहीं है परन्तु उस सिद्धान्तको गुप्त रखकर, वह, उपरोक्त सदृश वाक्य कहकर लोगोंसे अपना पीछा छुड़ाताथा। यह आरोप उस पर व्यर्थ रक्खा जाता है, क्योंकि उसकी और और उक्तियां विशेष उदार और दिव्य हैं। एक स्थलपर उसने कहा है कि "नीच जातिके लोगोंके देवताओंको देवता न माननेसेईश्वरकी निन्दा नहीं होती; किन्तु देवताओंके विषयमें, उन लोगोंके जो अनुचित और अग्राह्य मत हैं उनके द्वारा देवताओंका देवत्व सिद्ध करनेसे ईश्वरको निन्दा होती है"। प्लेटो भी इससे अधिक और क्या कह सकता? यद्यपि उसने विश्वासपूर्वक कहदिया कि इस संसार चक्रका चालक ईश्वर नहीं है, तथापि उसे यह कहनेका साहस नही हुआ कि ईश्वर है ही नहीं। पश्चिमी गोलार्द्ध में जो इंडियन लोग रहते हैं उनके यहां प्रत्येक देवताके लिए एक एक नाम है; परन्तु ईश्वरके लिए कोई नाम नहीं; जिससे यह सिद्ध होता है, कि यद्यपि इन असद्धर्मी जंगली लोगोंके मनमें ईश्वर विषयक पूरी पूरी कल्पना नहीं उद्भूत हुई, तथापि उसके अस्तित्वका कुछ न कुछ इनको भी ज्ञानहै। ग्रीक लोगोंने भी, पहले, देवताओंके जुपिटर, अपोलो, मार्स इत्यादि


  1. ग्रीसमें यपीक्यूरस एक उत्तम तत्त्ववेत्ता होगया है। सुनते हैं इसने३०० पुस्तकैं तात्त्विकविषयों पर लिखकर प्रकाशकी थीं। जिस समय यपीक्यूरस का वय १२ वर्ष का था उस समय इसके अध्यापकने इसे यह सिखाया कि "सृष्टिके आदिमें पञ्चतत्त्व उत्पन्न किएगए"। इसपर यपीक्यूरसने पूछा "किसने उत्पन्न किए" अध्यापक ने उत्तर दिया, "इस बातको मैं नहीं जानता; तत्त्ववेत्ता लोग जानते हैं"। तब यपीक्यूरसने कहा, "आज से मैं तत्ववेत्ताओं ही से अध्ययन करूंगा" यह बड़ा विद्वान् था। "अनेक अज्ञात पूर्व बातों को सिद्ध करके ७२ वर्ष के वयमें, २७० वर्ष ईसा के पहले इसने इस लोकसे प्रस्थान किया। मूत्रावरोधसे इसकी मृत्यु हुई।