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मत्सर।


कारक नहीं होता। परंतु एक बात निर्विवाद है कि जब एक छोटीसी बातके लिये किसी प्रधान अधिकारीका लोग अतिशय मत्सर करते हैं और असन्तुष्ट होकर उसको अतिशय दूषणीय समझते हैं, अथवा जब सामान्यतः ऊंचे ऊंचे सभी उपाधिकारियों के विषय में प्रजाजन असन्तोष प्रदर्शित करते हैं तब असन्तोष, मत्सर और दूषण का कारण (यद्यपि यह बात गुप्त रहती है) राजाही को समझना चाहिए।

यहांतक सार्वजनिक मत्सर अथवा असन्तोषका विचार हुआ। व्यक्तिविशेष विषयक मत्सरका उल्लेख ऊपर हो चुका है। उसमें और सार्वजनिक मत्सरमें क्या अन्तरहै उसका भी वर्णन होचुका है। साधारणतः मत्सरके विषयमें एक बात और यह कहनी है, कि वह सब मानसिक विकारोंसे अधिक त्रासदायक और जागरूक है। एकबार उसे उत्पन्न भर होना चाहिये; उत्पन्न होकर वह कभी नाशही नहीं होता। और मनोविकार कभी कभी जागृत होतेहैं; परन्तु, मत्सर को प्रसंग नहीं ढूंढना पड़ता। किसी न किसी के ऊपर वह अपनी सत्ता चलायाही करता है। इसी लिए किसीने बहुत ठीक कहा है कि, "मत्सर कभी छुट्टी नहीं लेता"। जितने विकार हैं, सबमें प्रेम और मत्सरही ऐसे हैं जो मनुष्य के शरीर को अस्थिशेष कर देते हैं और विकारों से, मनुष्य की, इस लिए ऐसी दशा नहीं होती क्यों कि वे चिरस्थायी नहीं रहते। मत्सर एक नितान्त निंद्य और दुष्ट विकार है इसे शैतान कहना चाहिए, क्योंकि जैसे शैतान रात के समय अंधेरे में, चुपचाप आकर, मनुष्यों के अन्तःकरण में दुर्वासनाओं का बीज बोता है वैसेही मत्सर करनेवाला पुरुष भी, छिपे छिपे, दूसरे के सद्गुण को दुर्गुण सिद्ध करने के लिये सदैव तत्पर रहता है।