उनकी कीर्त्ति और सम्पत्ति दोनों में बट्टा लगता है। परंतु उनकी भूल उनके दिखलाने वाले यदि उनके मित्र होते तो ऐसा कदापि न होता। सेंटजेम्सका कथन है कि ऐसे मनुष्योंकी गणना उनमें करनी चाहिए, जो अपना मुख दर्पणमें देखकर तत्कालही अपना स्वरूप और आकृति भूल जाते हैं।
कर्तव्यकर्म्म सम्बन्धी परामर्शके विषय में अब विचार करैंगे। बहुतेरे उद्भट विद्वानों का यह मत है, कि एक नेत्र की अपेक्षा दो नेत्रोंसे अधिक नहीं देख पड़ता; दूर खड़े होकर देखनेवाले की अपेक्षा खेलनेवालोंको खेल का मर्म्म अधिक समझ पड़ता है, क्रोध से अभिभूत हुआ मनुष्य शान्त मनुष्य के बराबरही विचारशील होता है; बन्दूक को किसी वस्तुपर रखकर उसके सहारे जैसा लक्ष्यभेद करते बनता है वैसाही हाथ में रखकर भी करते बनता है; परन्तु हमारी समझ में ये तथा इस प्रकारकी और बातैं प्रलाप मात्र हैं। जिनमें नख से शिखा पर्य्यन्त अहङ्कार भराहुआ है वही बहुधा, ऐसे ऐसे उद्गार निकालते हैं। चाहै जो कहिये और चाहै जो कीजिए, एक बात यह निर्विवाद है, कि सत्परामर्श लेनेसे काम काज निर्विघ्न और यथेच्छ होता चलाजाता है। यदि किसीकी इच्छाहो, कि वह एक काम में एक मनुष्य का और दूसरे में दूसरे का परामर्श लेवें, तो वह वैसा भी करसकता है। वैसा करना भी अच्छा है-निदान किसीसे कुछभी न पूंछने सेतो अच्छाही है। परन्तु इस प्रकारके परामर्शमें दो डर हैं। एक तो सत्परामर्श मिलनाही कठिन होगा, क्योंकि सच्चे मित्रके अतिरिक्त दूसरेसे क्वचित् ही निष्कपट परामर्श मिलताहै; फिर एक बात और यहहै कि परामर्श देनेवाले का कोई न कोई उद्देश रहता ही है; अतः उस उद्देश के अनुसार, स्वार्थका कुछ अंश परामर्शमें अवश्यमेव मिश्रित होजाता है। दूसराडर यह है, कि परामर्श देनेवालेका हेतु यदि अच्छा भी