पृष्ठ:बेकन-विचाररत्नावली.djvu/१००

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
(९५)
मैत्री।

हो जाताहै। जो रोग शरीरसे बाहर नहीं निकाले जासकते वे मनुष्य को अतिशय पीडित करते हैं। यह सभी जानते हैं। मानसिकरोगोंकी भी यही दशा है। यकृतको यथास्थित करनेके लिए तुम सार्सापिरिला लोगे, प्लीहाको अच्छा करनेके लिये तुम कांतीसार लोगे; फेफड़ाके रोगी होजानेसे तुम गन्धकके फूल लोगे; मस्तकमें विकार उत्पन्न होनेसे तुम का स्टोरियम नामक ओषधिलोगे:—परन्तु हृदयको रिक्त करने के लिए सच्चे, मित्रके अतिरिक्त अन्य धनही नहीं। जिसप्रकार धर्मगुरूके सन्मुख पापक्षय होनेके लिए अपने सारे पापकृत्य स्वीकार किए जाते हैं उसी प्रकार दुःख, सुखभय, आशा, संशय, परामर्श,—जो कुछ हृत्पटल पर खचित होकर क्लेशकर होरहाहो—उसके विषयमें अपने मित्रसे वार्तालाप किए बिना चित्त कभी स्वस्थ नहीं होता।

यह जानकर आश्चर्य होता है कि मित्रताके जिस फलका वर्णन हमने किया उसको राजा महाराजा लोग कितना मूल्यवान् समझते हैं। मित्रताके फलको वे लोग इतना महत्व देते हैं कि उसकी प्राप्तिके लिए वे अपने अधिकार को भूलकर बहुधा अपने प्राणभी धोखेमें डालते हैं। इसका यह कारण है कि राजा और उसकी प्रजा तथा उसके अनुचर वगमें स्थिति भिन्नत्व के कारण जो अन्तर होता है, उस अन्तर को विनष्ट करके जबतक वे दो मनुष्योंको अपना सहचर अथवा अपनी बराबरीका नहीं बनालेते तबतक उनको मित्रताके फलका पूरा पूरा उपभोग नहीं मिलता। इस प्रकार उच्च अधिकार देनेसे राजाओंको बहुधा असुविधाभी होतीहै। आधुनिक भाषामें ऐसे लोगोंको 'राजप्रिय' अथवा 'गुप्तमित्र' कहते हैं। यह बात इस नामहीसे सूचित होती है कि एतादृश लोगोंपर राजाकी कृपा है। परन्तु ऐसे मनुष्योंका जो नाम रोमन लोगोंमें प्रचलित है, उससे उनकी यथार्थ उपयोगिता और उच्च पद प्राप्तिका ठीक ठीक कारण ध्यानमें आजाता है। रोमन लोग ऐसे मित्रोंको "चिन्ताके विभाजक, कहते हैं यह सत्य है वे अवश्यमेव मित्रकी चिन्ताको विभक्त करके