पृष्ठ:बृहदारण्यकोपनिषद् सटीक.djvu/९९

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अध्याय १ ब्राह्मण ४ भावार्थ । हे सौम्य ! यह जगत् जो दिखाई दे रहा है सृष्टि के आदि में अव्याकृत था, यानी नामरूप से रहित था, पीछे से यही जगत् व्याकृत यानी नामरूपवाला होता भया, और फिर उसी नामरूपवाले विकृति में जीवात्मा प्रवेश करता भया और तिसी कारण यही विकृतिवाला यानी नामरूपवाला कह- लाता है, सोई आत्मा इस देह में नख से शिख तक प्रविष्ट है, जैसे छुरा नाई की पेटी में प्रविष्ट रहता है, अथवा जैसे अग्नि काष्ठ में लीन रहता है, और उस छुरे और अग्नि को कोई नहीं देखता है तद्वत्, जो जीवात्मा एक अंग में वास करता है वह अपूर्ण होता है, ऐसा जीगत्मा जब प्राण का व्यापार करनेवाला होता है तब प्राण के नाम से पुकारा जाता है, जब बोलने का व्यापार करनेवाला होता है तब वाक्य के नाम से पुकारा जाता है, जब द्रष्टा होता है, तब चक्षु के नाम से प्रसिद्ध होता है, जब श्रवण व्यापार करनेवाला होता है, तब श्रोत्र नाम से प्रसिद्ध होता है, जब मनन करनेवाला होता है तब मन के नाम से प्रसिद्ध होता है, यह जीवात्मा के उपा- धिजन्य नाम हैं, इस कारण जो पुरुष जीवात्मा के एक अंग की उपासना करता है वह पूर्ण आत्मा को नहीं प्राप्त होता है। क्योंकि यह जीवात्मा एक अंग करके अपूर्ण ही रहता है, इसलिये उपासक को चाहिये कि सब अंगों को एक आत्मा मानकर उपासना करें: क्योंकि उसी आत्मा में ये सब एक होते हैं, ऐसा यह जीवात्मा खोजने योग्य है, और जिस कारण यह जीवात्मा सब वस्तुओं में विद्यमान है तिसी कारण सबको वह उपासक जान लेता है, और जिस प्रकार . .