अध्याय १ ब्राह्मण ४ अग्नि को मंथन करता भया तब उसके मुख और हाथरूप योनि से अग्नि उत्पन्न होता भया, और नकि अग्नि के निकलने का स्थान लोमरहित है इसलिये यह मुख और हाथ जहाँ से अग्नि निकला है रोमरहित है, और जो कोई याज्ञिक ऐसा कहते हैं कि एक एक देवता को पृथक्-पृथक् गूजन करो नो बह ठीक नहीं कहते हैं, शायद वह नहीं जानते है कि इसी प्रजापति के वे अग्नि आदि देव सृष्टि है और यह सत्र अग्नि प्रादि देवता प्रजापतिरूप ही है, और जो कुछ ये गीली वस्तु देखने में आती है उस सबको प्रजापति ने अपने वीर्य से पैदा किया है, और जो अन्न है वही सोम है, और जितना अन्न है और अन्न का भोक्ता हैं उतना ही यह संघ जगत् है, हे सौम्य ! वास्तव में अन्न ही सोम है, और अग्नि ही अन्न का भोक्ता है, और जिस कारण प्रजापति मरणधी होता हुआ भी अजर-अमर देवताओं को पैदा किया है तिसी कारण देवों की सृष्टि प्रजापति की सृष्टि से अतिश्रेष्ट है, इसलिये जो उपासक प्रजापति की अतिसृष्टि में इस प्रकार जानता है वह प्रजा- पति की सृष्टि में सृष्टिकर्ता होता है ॥ ६ ॥ मन्त्र: ७ नद्धेदन्तीब्याकृतमासीत्तनामरूपाभ्यामेव व्याक्रि- यतासौनामायमिदं रूप इति तदिदमप्येतर्हि नाम- रूपाभ्यामेव व्याक्रियतेऽसौ नामायमिदं रूप इति स एप इह प्रविष्टः आनखाग्रेभ्यो यथा शुरः शुरधानेऽवहितः स्याद्विश्वम्भरी वा विश्वम्भरकुलाये तन्न पश्यन्ति ..
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