७७४ बृहदारण्यकोपनिषद् स० पढ़ने के पश्चात् आहुति देवे फिर नीचे लिखे मन्त्र को पढ़े "मयि प्राणांस्त्वयि मनसा जुहोमि स्वाहा" जिसका अर्थ यह है, जो मेरे बिषे प्राण हैं, उन प्राणों को मैं अपने पुत्र में मन द्वारा अर्पण करता हूं, ऐसा कहकर द्वितीय वार आहुति देवे, और फिर नीचे लिखे मन्त्र को पढ़े, “यस्क- मणात्यरीरिचं यदा न्यूनमिहाकरम् । अग्निष्टस्विष्टकृद्विद्वान् स्विष्टं सुहृतं करोतु नः स्वाहेति" जिस का अर्थ यह है, जो मैं इस कर्म करके अधिक कर्म करता भया हूं, अथवा इस कर्म में जो न्यूनकर्म करता भया हूं. उसको जानता हुआ अग्नि इस मेरे किये हुये होम को सुहाम करनेवाला होकर हमारे किये हुये कर्म को सुकर्म करे, फिर मन्त्र पढ़ने के पश्चात् आहुति देवे ॥ २४ ॥ मन्त्र: २५ अथास्य दक्षिणं कर्णमभिनिधाय वाग्वागिति त्रिरथ दधि मधु घृत, संनीयामन्तर्हितेन जातरूपेण प्राशयति । भूस्ते दधामि भुवस्ते दधामि स्वस्ते दधामि भूर्भुवः स्वः सर्व त्वयि दधामीति ॥ पदच्छेदः। अर्थ, अस्य, दक्षिणम्, कर्णम् , अभिनिधाय, वाक्, वाक्, इति, त्रिः, अथ, दधि, मधु, घृतम्, संनीय, अनन्त- हितेन, जातरूपेण, प्राशयति, भूः,ते, दधामि, भुवः, ते, दधामि, स्वः,ते, दधामि, भूः, भुवः, स्वः, सर्वम् , त्वयि, दधामि, इति ॥ . . .
पृष्ठ:बृहदारण्यकोपनिषद् सटीक.djvu/७८८
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।