७५२ बृहदारण्यकोपनिषद् स० व्यतीत करूं तो पति को चाहिये कि उस सी में अपनी प्रजनन इन्द्रिय को रखकर और मुख से मुख को मिला कर स्त्री के काम को उद्दीपन करके मैथुन करे यह कहता हुया कि मैं अपनी इन्द्रिय करके और वीर्य करके तेरे वीर्य को आकर्पण करता हूं, ऐसा करने से वह स्त्री वीर्यरहित हो जाती है, यानी गर्भ धारण योग्य नहीं रहती है ॥ १० ॥ मन्त्रः ११ अथ यामिच्छेद्दधीतेति तस्यामथे निष्टाय मुखेन मुख, संधायापान्याभिप्राण्यादिन्द्रियेण ते रेतसा रेत श्राद- धामीति गर्मिण्येव भवति ।। पदच्छेदः। अथ, याम्, इच्छेत् , दधीत, इति, तस्याम्, अर्थम्, निष्ठाय, मुखेन, मुखम्, संधाय, अपान्य, अभिप्राण्यात् , इन्द्रियेण, ते, रेतसा, रेतः, श्रादधामि, इति, गर्भिणी, एव, भवति ॥ अन्वय-पदार्थ । अथ-इसके बाद । + सःबह पुरुप । याम्-सिस बी के। + प्रति प्रति । इच्छेत् चाहे कि । + साबह । + गर्भम् गर्भ को । दधीत इति-धारण करे तो । तस्याम्-उस स्त्री में। अर्थम् अपनी प्रजनन इान्द्रय को। निष्ठाय-रख कर । मुखेन= मुख से । मुखम्-मुख को। संधाय=मिलाकर । अपान्य प्रवेश कर। अभिप्राण्यात्-उद्दीपन करे यानी भोग करें। + चोर । इति=ऐसा । श्राहकहे कि । रेतसा-वीर्यदान देनेवाली । .
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