७४८ बृहदारण्यकोपनिषद् स० भावार्थ । हे सौम्य ! अब यह दिखलाते हैं कि अगर स्त्री लक्ष्मीरूप नहीं है, यानी पतिमनो अनुसारिणी नहीं है तो फिर उसके साथ कैसा बर्ताव करना चाहिये, यदि किसी कारण सन्तान उत्पत्ति के लिये पति के साथ भोग करने को वह उद्यत नहीं होती है तो पुरुष को चाहिये कि उसको उसकी इच्छानुसार द्रव्य अथवा आभूपण दे कर प्रसन्न करे अगर वह स्त्री तब भी उसकी कामना को पूरा न करे तो उस स्त्री को दण्ड का भय दिखाकर अथवा हाथ से पकड़ कर समझाये कि हे सुन्दरि ! अगर तू मेरी कामना को पूर्ण न करेगी तो सन्तान करके जो यश स्त्री को होता है उस तेरे यश को अपने यश के साथ नष्ट कर दूंगा यानी मैं जन्मभर ब्रह्मचारी रहूंगा और इसी कारण तेरे सन्तान न होगी और इसी कारण तू जन्म भर अयशी बनी रहेगी, और सन्तान के अभाव के कारण तुझको अनेक प्रकार का क्लेश होता रहेगा ऐसा कहने से जब वह स्त्री राजी हो जाय तब उससे समागम करे सा चेदस्मै दद्यादिन्द्रियेण ते यशसा यश आदधामीति यशस्विनावेव भवतः॥ पदच्छेदः। सा, चेत्, अस्मै, दद्यात् , इन्द्रियेण, ते, यशसा, यशः, आदधामि, इति, यशस्विनौ, एव, भवतः ॥ -
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