७४६ बृहदारण्यकोपनिषद् स० मयि मेरे यिप जो। तेजः-शरीर को कान्ति है । इन्द्रियम्= इन्द्रियशनि है। यशः यश है । द्रविणम्-द्रव्य है। मुरुतम् पुण्य है । + तानि-उनको। + देवाः देवना। + कल्पयन्तु स्थित रक्खें । ह वै-और । यत्-गो। मलोद्धासा: स्यमय धारण किये हुये है। एपा इतिचा ऐमी मेरी खी खीरगाम् मियों में । श्री लक्ष्मी है। तस्मात-तिमी कारगा I + इति: ऐसी । मलाद्वाससम् स्वच्छयग्रधारिणी। यशस्विनीम-पश- वाली स्त्री को। अभिगम्य-प्राप्त हो कर । उपमन्नयंत-एकान्त में बैठ कर सन्तान की उत्पत्ति के लिये विचार करें। भावार्थ। हे सौम्य ! ऐसा कभी कभी देखने में आया है कि अधम नर स्त्री के साथ जल में क्रीड़ा करके या अकेलाही स्नान करते समय अपने वीर्य को जल में गिरा देते हैं, ऐसे दुष्टकर्म के रोकने के लिये कहते हैं कि यदि जल में अपने वीर्य को गिरते हुये देखे तो उस जल को अभिमन्त्रणा करे यह कहता हुश्रा कि हे भगवन् ! इस भ्रष्ट कर्म से जो मेरे शरीर की कान्ति, यश, वित्त और पुण्य नष्ट हुये हैं उनको देवता मेरे लिये देवें, और मैं पुनः ऐसे नीचकर्म को न करूंगा अव स्त्री की पवित्रता को दिखलाते हैं, यह कहते हुये कि जो स्वच्छ वस्त्र धारण किये विवादिता मेरी सो है वह सत्र त्रियों में श्रेष्ठ है, मेरे घर की शोभा है, संपत्ति है, लक्ष्मी है, इस लिये ऐसी स्वच्छ्वस्त्रधारिणी और यशस्विनी खो को प्राप्त होकर एकान्त बिपे सन्तान उत्पत्ति के लिये संसर्ग करे, और अपनी विवाहिता स्त्री का निरादर न करे, और न अपने इन्द्रिय को कहीं दूपित करे ॥ ६ ॥ .
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