वृहदारण्यकोपनिषद् स० सब । वै अवश्य । मान्मेरे में। अभिसंविशत-भली प्रकार प्रवेश करो । तथा बहुत अच्छा। इति-ऐसा।+ उक्त्वा कहकर । + ते वे सब देवता । तम्-उस प्राण के। परिसमन्तम्-चारों तरन। न्यविशन्त-भली प्रकार प्रवेश करते भये । तस्मात् इसी लिये । यत्-जो । अन्नम् अन्न को। अनेन माण करके । + लोका-पुरुष । अत्ति खाता है । तेन-उसी अन्न करके । एता:-ये बागादि देवता । तृष्यन्ति-तृप्त होते हैं । एवम् ह वा-उसी प्रकार चानी जैसे वागादिक इन्द्रियाँ प्राण के ग्राश्रय रहती हैं वैले ही। एनम्-इस प्राणविन् पुरुष के । स्वाः अभिसं- विशन्ति-चारों तरफ उसके ज्ञाति के लोग स्थित हो जाते हैं यानी उसके पाश्रयणीय होते हैं । चम्यार । स्वाःबह । स्वानाम् अपने जाति का । भर्ता-पालक + भवति होता है। +च और । श्रेष्ठः पूज्य होकर । पुरः सबके अगाड़ी । एताः- चलनेवाला । भवति होता है। + च-और । अन्नादः अन्न का मोता। अधिपतिः-अधिपति । + भवति-होता है। इदम्- यह 1 + फलम्-फल । + तस्यउसको । + भवति होता है। या-जो। एवम्कहे हुये प्रकार । वेद-प्राण को जानता है। उ ह और । स्वघु-यपने ग्रानी उसने ज्ञातियों में से । याजो। एवंविदम् प्रति इस प्रकार जाननेवाले प्राण के उपासक के प्रति । प्रतिः प्रतिकुल । वुभूपतिन्होने की इच्छा करता है तो।+सा वह ! भायभ्यः भरण पोपण योग्य ज्ञातियों के भरणार्थ । न एवम्कभी नहीं । अलम्समर्थ । भवति होता है। ह एवम्यह निश्चय है । अथ और । यःम्जो कोई। एतम् एव-इसी प्राण- वेत्ता पुरुष के । अनु-अनुकूल । भवति होता है । वा-अयत्रा । याजो कोई । एतम्-इसी प्राणवित् पुरुप के । अनु-अनुकून वरतता हुथा। भार्यान्-भरणीय पुरुषों को । बुभूति-पालन
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