अध्याय ६ ब्राह्मण ४ ७४३ भावार्थ। हे सौम्य ! इस मैथुनकर्म की प्रशंसा अरुण के पुत्र विद्वान् उद्दालक ऋपि ने की है, और वैसेही मुद्गल के पुत्र विद्वान् नाक ने की है, तिसी कर्म की प्रशंसा कुमारहारित ने की है, इन लोगों का यह कहना है कि बहुत से मरणधर्मी इन्द्रियों के विषयों में आसक्त हुये पुण्यरहित नाममात्र के ब्राह्मण इस योनि से दूसरी योनि को प्राप्त होते हैं । जो मैथुनकर्म की विधि को नहीं जानते हुये और उसके तात्पर्य को न समझते हुये मैथुनकर्म करते हैं, हे सौम्य ! इन ऋपियों की प्राज्ञा है कि अगर सोये हुये पुरुष का अथवा जागते हुये पुरुप का वीर्य बहुत या कम गिर जाय तो वह प्रायश्चित्त अवश्य करे ॥४॥ मन्त्र: ५ तदभिमशेदन वा मन्त्रयेत यन्मेऽध रेतः पृथिवीम- स्कान्त्सीयदोपधीरप्यसरवदपः इदमहं तद्रेत आददे पुन- मामेत्विन्द्रियं पुनस्तेजः पुनर्भर्गः पुनरग्निर्धिष्ण्या यथा- स्थानं करपन्तामित्यनामिकाङ्गुष्ठाभ्यामादायान्तरेण स्तनौ वा ध्रुवौ वा निमृज्यात् ।। पदच्छेदः। तत्, अभिमृशेत् , अनु, वा, मन्त्रयेत्, यत , मे, अद्य, रेतः, पृथिवीम् , अस्कान्सीत् , यत्, ओषधीः, अपि, अस- रत्, यत् , अपः, इदम् , अहम् , तत् , रेतः, आददे, पुनः, माम् , एतु, इन्द्रियम् , पुनः, तेजः, पुन:, भर्ग:, पुनः, ..
पृष्ठ:बृहदारण्यकोपनिषद् सटीक.djvu/७५७
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।