७३८ बृहदारण्यकोपनिषद् स० जल है, जल का सार गहुँ, धान आदि श्रोषधियां, श्रीप- धियों का सार पुष्प हैं, पुष्पों का सार फल हैं, फलों का सार पुरुप है, पुरुष का सार रेत ( वीर्य ) है ॥ १ ॥ मन्त्र: २ स प्रजापतिरीक्षांचक्रे हन्तास्मै प्रतिष्ठां कल्पया- नीति स स्त्रिय ससृजे ताछ, सष्ठाऽध उपास्त तस्मा- स्त्रियमध उपासीत स एतं प्राञ्च ग्रावारणमात्मन एव समुदपारयत्तेनैनामभ्य सृजत ॥ पदच्छेदः। सः, ह, प्रजापतिः, ईक्षांचक्रे, हन्त, अस्मै, प्रतिष्टाम् , कल्पयानि, इति, सः, त्रियम् , ससृजे, ताम् , सृष्ट्वा, अधः, उपास्ते, तस्मात् , स्त्रियम्, अधः, उपासीत, सः, एतम् , प्राञ्चम् , ग्रावाणम्, आत्मनः, एव, समुदपारयत्, तेन, एनाम्, अभ्यसृजत । अन्वय-पदार्थ । सा=बह । प्रजापतिः प्रजापति । अवश्य । हन्त-कृपा के साथ । ईक्षांच-देखता भया यानी विचार करता मया कि । अस्मै इस पुरुप के उत्पन्न करनेवाले वीर्य को। प्रतिष्टाम्-प्रतिष्ठा को । कल्पयानि-देऊ यानी शुमस्थान देऊ । इति-ऐसा सोच कर । सा=बह प्रमापति । स्त्रियम्-सी को । ससृजे उत्पन्न करता भया । + पुनः फिर । ताम्-उस स्त्री को । सृष्ट्वा उत्पन्न करके उसके साथ । अधः उपास्ते-मैथुन करता भया । तस्मात् इसी कारण । स्त्रियम्-स्त्री के साथ । अधः उपासीत-मैथुन लोग करें । हिक्योंकि । साह , .
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