वृहदारण्यकोपनिषद् स० -- लकड़ी । औदुम्बी गूलर की। उपमन्यन्यो-उपमन्धनी । + च-चौर । दश दश प्रकार के । ग्राम्यागि-गांव में उत्पत्र होनेवाले । धान्यानि-धान्य । भवन्ति-यज्ञ चिप होते हैं। तेवे । व्रीहियवाः धान, जब । तिलमापा:-निल, उदद । अणुप्रियङ्गवः अणुवा, ककुनी । गोधूमा: गह। मनगा: मसूर । च-ौर । खल्बा:-मटर । बलकुलाः कुलधी है । तान् पिष्टान-तिन पिसे हुये धान्यों को। दधनिन्दही में। मधुनि शहद में । + चौर । घृतेघी में । उपसिञ्चति- मिलावे । +च पुनः घऔर फिर । श्राज्यस्य-घृन का। जुहोति होम करे । भावार्थ। हे सौम्य ! होमकर्म करने में जो पात्र धीर अन्नादिकों की आवश्यकता है उसके विधान को लिखते है-गृलर की लकड़ी के चार प्रकार के पात्र होते हैं, एक तो गूलर का सुवा होता है, दूसरा गूलर का प्याला होता है, तीसरी समिधा होती है, चौथे गूलर के उपमन्यनो पात्र होते हैं और जो दश प्रकार के अन्न ग्राम में पैदा होते हैं वह यह हैं:-बोहि, जव, तिल, माप, ककुनी और अणुवा, गेहूं, मसूर, मटर, कुलथी इन सबको अच्छी तरह से पीस कार एक में मिलावे और उसमें दही, मधु और घृत डाले और फिर इसके पीछे घृत की आहुति देवे ॥ १३ ॥ इति तृतीयं ब्राह्मणम् ॥ ३ ॥
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