अध्याय ६ ब्राह्मण ३ ७२१ हुत्वा होम करके । मन्थे-मन्थ में । संनवम्बचे हुये घृत को । अवनयति डालता जाय । भविष्यते भविष्य के लिये आहुति देता हूँ। इति ऐसा । + उक्त्वा कह कर । अग्नी-अग्नि में। हुत्वा-होम करके । मन्थे-मन्य में । संस्रवम् बचे हुये घृत को । श्रवनयति डालता जाय । विश्वाय स्वाहा-विश्व के लिये थाहुति देता है । इति-ऐसा । + उक्त्वा-कह कर । अग्नौ-अग्नि में । हुत्वा-होम करके । मन्थे-मन्थ में । संत्र- वम्बचे हुये घृत को । अवनयति डालता जाय । सर्वाय स्वाहास ले लिये पाहुति देता हूं। इति-ऐसा ।+ उक्त्वा कह कर । अंग्नो-अग्नि में । हुत्वा होम करके । संस्त्रवम् यचे हुये घृत को । मन्थे-मन्थ में। अवनयति-हालता जाय । पजापतये स्वाहाप्रजापति के लिये पाहुति देता हूं। इति ऐसा । + उक्त्वा कह कर । अग्नौ अग्नि में । हुत्वा होम करके । मन्थे-मन्थ में । संनवम्बचे हुये घृत को । अवन- यति हालता जाय । भावार्थ । हे प्रिय ! इन नीचे लिखे हुये मन्त्रों को यानी "अग्नये स्वाहा, सोमाय स्वाहा, भूःस्वाहा, भुवःस्वाहा, स्वःस्वाहा, भूर्भुवः स्वः स्वाहा, ब्रह्मणे स्वाहा, क्षत्राय स्वाहा, भूताय स्वाहा, भविष्यते स्वाहा, विश्वाय स्वाहा, सवीय स्वाहा प्रजापतये स्वाहा' पढ़कर अग्नि में हवन करके बचे हुये घृत को मन्थ में डालता जाय ॥ ३॥ मन्त्रः ४ अथैनमभिमृशति भ्रमदसि ज्वलदसि पूर्णमसि प्रस्तब्धमस्येकसभमसि हिंकृतमसि हिंक्रियमाणमस्युद्गीथ- ४६
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