.. . ७१२ बृहदारण्यकोपनिषद् स० भावार्थ । है सौन्य ! जो कोई पुरुष यज्ञ करके, दान करके, तप करके पितृलोकादिकों को प्राप्त करते हैं, वे प्रथम धूमाभिमानी देवता के लोक को प्राप्त होते हैं, और अमाभिमानी देयता के लोक से रात्रिअभिमानी देवता के लोक को प्राप्त होते हैं, और रात्रिअभिमानी देवता के लोक से वृष्णपक्षाभिमानी देवता के लोक को प्राप्त होते हैं, कृष्ण पक्षप्रभिमानी देवता के लोक से उन छह महीनाथभिमानी देवता के लोक को प्राप्त होते हैं, जिनमें सूर्य दक्षिणायन रहता है, फिर दृह महीनाअभिमानी देवता के लोक से पितृलोक को प्राप्त होते हैं, पितृलोक से चन्द्रलोक को प्राप्त होते हैं, और चन्द्रलोक को प्राप्त होकर अन्न यानी भोग बनते हैं उनके उस अवस्था में वैसे ही चन्द्रलोक में उनके साथ देवता उपभोग करते हैं, यानी उनको उनके कर्मानुसार फल देते हैं जिसको उनती इच्छा होती है, जैसे इस पृथिवीलोक में ऋत्विज्लोग सोमयज्ञ में सोमलता के रस को पी पीकर और क्षीण कर कर यापस में यह कहते हुए कि पीते चला पाते चलो जब तक इसकी समाप्ति न हो जाय, उपभोग करते हैं, जब चन्द्रलोक में प्राप्त हुये कर्मियों का फल क्षीण हो जाता है तब वे कर्मीलोग इस दृश्यमान प्राकाश को प्राप्त होते हैं, और आकाश से वायु को, वायु से वृष्टि को, वृष्टि से पृथिवी को आते हैं, और पृथिवी में आकर अन्न होते ह, और फिर वह अन्न पुरुषरूपी अग्नि में प्राहुतिरूप से दिये जाते हैं तब उस अन्न से वीर्य उत्पन्न होता है, वह चार्य खोल्पी अग्नि में आहुतिरूप से दिया जाता है, तब वह लोकों में .
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