'अध्यायं ६'ब्राह्मण २ + विद्याम् विद्या की। इच्छासै-इच्छा करते हैं ? । इतिइस पर ।+ गौतमः गौतम ने । + आह कहा कि । अहम् -मैं । भवन्तम्-विधिपूर्वक श्रापके निकट । उपैमि-प्राप्त हुआ है। हि क्योंकि । स्म-पूर्वकाल में । एवम्मी । पूर्वेब्राह्मण । क्षत्रियान्-क्षत्रियों के पास ब्रह्मविद्या के लिये । वाचा-वाणी करके । उपयन्ति-नम्र होकर । + स्म-प्राप्त होते भये हैं । ह सः वह गौतम । उपायनकीा केवल मुख से सेवा वाक्य करके । उवास-राजा के पास विद्या के निमित्त रहता भया । भावार्थ । तब गौतम ने कहा कि, आपको मालूम है कि मेरे यहां सुवर्ण, गाय, घोड़े, दास, दासियां, वस्त्र आदिक बहुत हैं, आप मुझको अविनाशी अनन्तधन दीजिये । राजा ने कहा हे गौतम ! क्या आप विधिपूर्वक विद्यारूपी धन के ग्रहण की इच्छा करते हैं ? गौतम ने कहा कि मैं आपके निकट शिष्य- भाव से उपस्थित हुआ हूं हे राजन् । पूर्वकाल में भी अनेक ब्राह्मण वचनमात्र से सेवा और नम्रता करते हुये क्षत्रिय के निकट विद्या के लिये उपस्थित हुये हैं, और ऐसा कहकर वह वास करने लगे ॥ ७ ॥ मन्त्रः ८ ‘स होवाच तथा नस्त्वं गौतम मापराधास्तव च पितामहा यथेयं विद्यतः पूर्व न कस्मिथ्श्चन ब्राह्मण उवास तां त्वहं तुभ्यं वक्ष्यामि को हि. त्वैवं ब्रुवन्तम- ईति.प्रत्याख्यातुमिति ॥
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