, , .. ६७६ वृहदारण्यकोपनिपद् स० मनसा मन से । विद्वांसः-जानते हुये । रेनसा चौयं में। प्रजायमाना:-संतान उत्पन्न करते हुये | + जीवन्ति-जीने है। एवम् वैसेही । वयम् हमलोग । + न्याम्ऋने नेरे बिना। अजीविष्म जीते रहे । इति-ऐमा । + धृत्या-मुनकर । श्रोत्रम् कर्णेन्द्रिय । प्रविवेश ह-फिर शरीर में प्रवेश करती भई। भावार्थ। इसके पीछे कर्ण इन्द्रिय शरीर से निकली, और वह एक सालतक बाहर रहकर और वापस श्रानकर बोली कि है वागादि इन्द्रियो ! मेरे बिना तुम कैसे जीने रहे ! इस पर सबों ने कहा कि जैसे बहिरे कान से न सनत हुये, नेत्र में देखते हुये, मनसे जानते हुये, वागी ने कहते हुये, वीर्य मे संतान पैदा करते हुये जीत है, वैसे ही हम लोग भी तुम्हारे विना प्राण करके जीते हैं, ऐसा मुनकर कर्ण इन्द्रिय अपने को हारी मानकर शरीर में फिर प्रवेश हाती भई ॥ १० ॥ मन्त्रः१२ मनो होचक्राम तत्संवत्सरं मोप्याऽऽगत्योवाच कथ- मशकत महते जीवितुमिति ते होचुर्यथा मुग्धा अविद्वांसो मनसा प्राणन्तः प्रारणेन वदन्तो वाचा पश्यन्तश्चनुपा शृएवन्तः श्रोत्रेण प्रजायमानाः रेतसैवमजाविप्मेति प्रविवेश ह मनः ॥ पदच्छेदः। मनः, ह, उच्चक्राम, तत्, संवत्सरम्, प्रोप्य, आगत्य, उवाच, कथम्, अशकत, मत्, ऋते, जीवितुम्, इति, ते, ह, ऊचुः, यथा, मुग्धाः, अविद्वांसः, मनसा, प्राणन्तः,
पृष्ठ:बृहदारण्यकोपनिषद् सटीक.djvu/६९०
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।