अध्याय ६ ब्राह्मण १ (u •us .: .' अन्वय-पदार्थ । या जो पुरुप । ह वैनिश्चय के साथ । प्रतिष्ठाम्-प्रतिष्ठा को । वेद-जानता है । सम्बह । समे-समभूमि में । वैअच्छी तरह । प्रतितिष्ठति-प्रतिष्ठिन होता है । च-और । दुर्ग-नीच उंच भूमि में भी । प्रतितिष्ठति-प्रतिष्टित होता है । + प्रश्नः प्रश्न । + प्रतिष्ठा-प्रतिष्टा । + का क्या वस्तु है। + उत्तरम् उत्तर । चक्षुः नेत्र हो । प्रतिष्ठा प्रतिष्ठा है । हि-क्योंकि । चक्षुपा नेत्र करके भी । समे-समभूमि में । च-और । दुर्गे नीच ऊध भूमि में । चम्भो । प्रतितिष्ठति-पुरुप स्थित होता है । यः जो। एवम्-इस प्रकार । वेद-जानता है। सा=वह । समे-समभूमि पर । प्रतितिष्ठत्ति-स्थित होता है। + च-और । दुर्ग-नीच ऊंच भूमि पर।+ अपि-भी। प्रतितिष्ठति-ठहरता है । भावार्थ। जो पुरुप प्रतिष्ठा को जानता है वह समभूमि और विषम भूमि दोनों में प्रतिष्ठित होता है । प्रश्न-प्रतिष्ठा क्या वस्तु है ! उत्तर-नेत्र ही प्रतिष्ठा है, क्योंकि नेत्र करके ही पुरुष सम- भूमि और विषमभूमि में स्थित होता है, जो पुरुष इस प्रकार जानता है वह समभूमि और विषमभूमि में स्थित होता है ॥३॥ मन्त्रः४ यो ह वै संपदं चेद सहास्मै पद्यते यं कामं कामयते श्रोत्रं वै संपछ्रोत्रे हीमे सर्वे वेदा अभिसंपन्नाः सछहास्मै पद्यते चं कामं कामयते य एवं वेद.॥ पदच्छेदः। यः, ह, बँ, संपदम्, वेद, सम् , ह, अस्मै, पद्यते, यम् , कामम् , कामयते, श्रोत्रम्, वै, संपत् , श्रोत्रे, हि, इमे, सर्वे, .
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