पृष्ठ:बृहदारण्यकोपनिषद् सटीक.djvu/६७४

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बृहदारण्यकोपनिषद् स० + शृणु-सुन । तस्या=गायत्री का। मुखम्-मुख । अग्नि: अग्नि । एव: निश्चय करके है । इव-जैसे । यदि ह-जब । लोका:-लोग । अग्नौ-अग्नि में । बहु-बहुत इन्धन । अभ्यादधति-दालते हैं । वा अपि-तव । तत्-ठस । सर्वम्- सवको । संदहति एव-अग्नि अवश्य जला देता है । एवम् विद्-तैसे गायत्री का ज्ञाता पुरुष । यद्यपि यद्यपि । वहु- बहुत । पापम् इव-पाप को भी। कुरुते-करता है । + तथापि तो भी। तत्-उस । सर्वम्-सवको । एव-अवश्य । संप्साय- नाश करके। शुद्धः शुद्ध । पूतः पापरहित । अजर-अरारहित। अमृताम्मुक्त । संभवति हो जाता है। भावार्थ । हे शिष्य ! किसी समय विदेह देश का राजा जनक ने आश्वतराश्वि के पुत्र बुडिल से बड़े आश्चर्य के साथ इस गायत्री के विषय में प्रश्न किया ऐसा कहता हुआ कि हे बुडिल ! तू कहता है कि मैं गायत्री का ज्ञाता हूँ पर मैं तुझको देखता हूँ कि तू इस्ती के ऐसा बल रखता हुआ. भी प्रति- ग्रह के भार को लिये हुये फिरा करता है इसका क्या कारण है ? इस प्रश्न को सुनकर बुडिल ने कहा हे राजा इस गायत्री के मुख को नहीं जानता हूं और यही कारण है कि मैं हस्ती के सदृश प्रतिग्रहरूप भार को लिये हुये फिरता रहता हूं इस पर राजा जनक ने कहा हे बुडिल! सुन, गायत्रो का मुख अग्नि है, जैसे लकड़ी अग्नि में डालने से भस्म हो जाती है वैसे ही गायत्री के ज्ञाता पुरुष के सब पाप नष्ट हो जाते हैं और वह शुद्ध पापरहित जरारहित मुक्त होजाता है॥८॥ इति चतुर्दशं ब्राह्मणम् ॥ १४ ॥ जनक! मैं