अध्याय १ ब्राह्मण ३ करना चाहता है। सामवह । एव-अवश्य । भार्येभ्यः पालने योग्य लोगों के लिये । अलम्-समर्थ । भवति होता है। भावार्थ । तदनन्तर वागादि इन्द्रियदेवता मुख्य प्राण से कहने लगे कि जो कुछ भोजन करने योग्य अन्न है उसको आपने अपने लिये गान किया है, आप हम सबको उस अन्न में भाग! दीजिये, उस पर मुख्य प्राण ने कहा तुम सब मेरे में प्रवेश कर जाव, जो कुछ मैं खाऊँगा वह सब तुमको भी मिलेगा, बहुत अच्छा, ऐसा कहकर वे सब देवता उस प्राण में प्रवेश करते भये, इसलिये जो अन्न प्राण करके खाया जाता है उसी अन्न करके वागादि देवता भी तूंप्त होते हैं, और जैसे वागादि इन्द्रियाँ प्राण के आश्रय रहती हैं, वैसे ही उस प्राण- वित् पुरुष के आश्रय उसके जाति के लोग भी रहते हैं, और वह अपने जातियों का पालन पोषण करता है, और उनका पूज्य होकर उनके सबके अगाडी जानेवाला होता है, यानी उनको अच्छे मार्ग पर चलाता है, और वही नीरोग होकर अन्न का भोक्ता और अधिपति होता है, ऐसा फल उसी पुरुप को मिलता है जो ऊपर कहे हुए प्राण की उपासना करता है, और उसके ज्ञातियों में से जो कोई उसके प्रतिकूल चलने की इच्छा करता है वह भरण पोषण करने योग्य जातियों के भरणार्थ कभी समर्थ नहीं होता है। और जो कोई उसके अनुकूल चलने की इच्छा करता है, अथवा जो कोई उसके अनुकूल वर्तता है और भरणीय पुरुष को पालन करना चाहता है वह अवश्य पालन पोषण करने योग्य लोगों के लिये समर्थ होता है ॥ १८ ॥ . .
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