अध्याय ५ ब्राह्मण १४ ६५१ ोगीया अधिक बलवाला । आहुः कहते हैं । एवम्-इस प्रकार प्राण बलवान होने के कारण । एषा उ-यह । गायत्री- गायत्रा । अध्यात्मम्-प्राण में । प्रतिष्ठिता स्थित है । साह- वही । एपा-यह गायत्री । गयान्-गान करनेवालों की यानी जप करनेवालों की । तरक्षा करती है । प्राणान्प्राण यानी वागादि इन्द्रियां । वे अवश्य । गया गान करनेवाले हैं। तत्-इसी लिये । तान्-उन वागादिकों की । त्रायते-गायत्री रक्षा करती है । तत्-और । यत्-जिस कारण । गयान्-जपने वालों की । तत्रे रक्षा करती है । तस्मात्-तिसी कारण । गायत्री-गायत्री । नाम-नाम करके प्रसिद्ध है । याम्-जिस । अमूम्-इम । सावित्रीम् गायत्री को । अन्वाह-शिष्य प्राचार्य कहता है । सा-वही । एव-निश्चय करके । एषा यह गायत्री है । यस्मै जिस शिष्य के लिये । सःबह प्राचार्य । अन्वाह कहता है । तस्य-उसके । प्राणान्प्राणों की । + एप: यह । त्रायते-रक्षा करती है। भावार्थ । हे शिष्य ! गायत्री का चौथा पाद दर्शत है, यही परो- रजा है, क्योंकि यह प्रकृति के परे है, और प्रकृति और उसके कार्य का प्रकाशक है, इसके आश्रय गायत्री है, यही दर्शतपाद सत्य बिषे स्थित है, सोई सत्य निश्चय करके चक्षु है, क्योकि और इन्द्रियों की अपेक्षा चक्षु सत्य प्रसिद्ध है, कारण यह है कि यह बली है, जैसे दो पुरुष एक ही काल विषे आकर उपस्थित हों और उनमें से एक कहे मैंने देखा है और दूसरा कहे कि मैंने सुना है तो द्रष्टा का वाक्य श्रोता के वाक्य की अपेक्षा सत्य माना जायगा यानी .
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