अध्याय ५ ब्राह्मण १४ ६४३ भावार्थ। प्राण ही क्षत्र है, क्योंकि प्राण ही देह को शस्त्र के घाव से बचाता है, यानी जब कोई शस्त्र किसी के शरीर में लग जाता है और उससे घाव पैदा हो जाता है तब प्राण के होने के कारण औषधी करके घाव भर जाता है, और पुरुष अच्छा हो जाता है, प्राण को क्षत्र इस कारण कहा है कि जैसे क्षत्रिय किसी का सहारा न करके अपने वीर्य पराक्रम से अपनी और दूसरे की रक्षा करता है, उस तरह प्राण भी किसी इन्द्रिय का सहारा न लेकर अपनी और दूसरे की रक्षा करता है, इस प्रकार प्राण को क्षत्र जान कर प्राण की उपासना करै, जो पुरुषं ऐसा, जानता है, वह क्षत्ररूपी प्राण के सायुज्यता और सालोक्यता को प्राप्त होता है ॥ ४ ॥ इति त्रयोदशं ब्राह्मणम् ॥ १३ ॥ अथ चतुर्दशं ब्राह्मणम् । मन्त्रः १ भूमिरन्तरिक्ष द्यौरित्यष्टावक्षराण्यष्टाक्षर/ ह वा एक गायन्यै पदमेतदु हैवास्या एतत्स यावदेषु त्रिषु लोकेपु तावद्ध जयति योऽस्या एतदेवं पदं वेद ॥ पदच्छेदः। भूमिः, अन्तरिक्षम्, द्यौः, इति, अष्टौ, अक्षराणि, अष्टाक्षरम् , ह, वा, एकम् , गायत्र्य, पदम् , एतत् , उ, ह,
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