पृष्ठ:बृहदारण्यकोपनिषद् सटीक.djvu/६४८

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६३४ बृहदारण्यकोपनिषद् स० शरीर को त्याग करता है तो जिन श्रेष्ठ लोकों को वह प्राप्त होता है वैसे ही उन्हीं उन्हीं लोकों को ज्ञानी घर में ही मरने के पश्चात् ईश्वर सम्बन्धी विचार करने के कारण प्राप्त होता है, और जैसे शुभ कर्मी शरीर त्यागानन्तर अग्नि में प्रवेश करके पापों से निर्मल होकर जिन जिन लोकों को प्राप्त होता है वैसेही उन्हीं लोकों को वह ज्ञानी भी अपने घर में ही शरीर त्याग के पश्चात् प्राप्त होता है, जो रोगग्रसित है और जिसको मृत्यु ने बानकर घेर लिया है, परन्तु अपने दृढ़ विचार से हटा नहीं है और यह भी उसको मालूम है कि थोड़े ही काल पीछे मेरे मृतक शरीर को मेरे सम्बन्धी अग्नि में दाह करेंगे ॥ १ ॥ इति एकादशं ब्राह्मणम् ॥ ११ ॥ अथ द्वादशं ब्राह्मणम् । मन्त्रः १ अन्नं ब्रह्मेत्येक आहुस्तन्न तथा पूयति वा अन्नमृते प्राणात्माणो ब्रह्मेत्येक आहुस्तन्न तथा शुष्यति वै प्राण ऋतेऽन्नादेते ह वेव देवते एकधाभूयं भूत्वा परमतां गच्छनस्तदस्माऽऽह मातृदः पितरं कि स्विदेवैवं विदुपे साधु कुर्या किमेवास्मा असाधु कुर्यामिति स ह स्माऽऽह पाणिना मा प्रातृद कस्त्वनयोरेकधाभूयं भूत्वा परमतां गच्छतीति तस्माउ हैतदुवाच वीत्यन्नं वै व्यन्ने हीमानि