अध्याय ५ ब्राह्मण ११ . निस्सन्देह । परमम-परम । तपः-तप है।+ यदा-जिस काल में। + व्याहितारोगग्रसित पुरुप । + तप्यते ईश्वर के विचार में तत्पर है। चम्यौर। + तस्यैवं विचार:-उसका ख्याल है कि । माम्-मुझ । प्रेतम् मरे हुये को । अग्नौ-अग्नि में अभ्या- दधतिरक्खेंगे । यःजो । एवम्-इस प्रकार । वेद-जानता है। सः एवम्बही । परमम्-श्रेष्ठ । लोकम् लोक को। जयति जीतता है यानी प्रा होता है। भावार्थ। जो पुरुप रोगग्रसित है, और मृत्यु उसके निकट खड़ा है, पर उसका चित्त ईश्वर में लगा है, और इस अपने विचार- रूपी तप को भली प्रकार जानता है, वह देह त्यागने के पश्चात् श्रेष्ट लोकों को प्राप्त होता है, उस पुरुप का भी यह श्रेष्ठ तप है जो रोगों से तो ग्रसित है, और मृत्यु जिस के समीप आन पहुँचा है परन्तु वह अपने विचार में तत्पर है, और यह भी उसको ख्याल हो रहा है कि मुझको मेरे मरने के पीछे मेरे ज्ञाति लोग अरण्य में मेरे मृतक शरीर को जलाने के लिये ले जायँगे ऐसा ज्ञानी पुरुप श्रेष्ठ लोकों को प्राप्त होता है। यह उस ज्ञानी का भी श्रेष्ठ तप है जो रोग से तो ग्रसित है और जिसके निकट मृत्यु आ पहुँचा है, परन्तु उस हालत में भी वह ईश्वर के विचार से शून्य नहीं है, और उस हालत में उसको चिन्ता हो रही है कि मेरे मृतक शरीर को लोग थोड़े काल पछि अग्नि में रक्खेंगे, ऐसा दृढ़ ज्ञानी पुरुप अवश्य श्रेष्ठ लोकों को जीतता है, जैसे श्रेष्ठ कर्मी पुरुष जब गृहस्थाश्रम को त्याग कर वानप्रस्थ अवस्था को धारण कर अरण्य को जाता है और उसी अवस्था में
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