बृहदारण्यकोपनिपद् स० जगत् है, उसी यज्ञादि कर्म करके सत्यज्ञान की उत्पत्ति होती भई वही सत्यज्ञान से विराटरूप प्रजापति उत्पन्न होता भया, और प्रजापति से देवता लोग उत्पन्न होते भय, इसीलिये देवता लोग सत्यब्रह्म की ही उपासना करते हैं, यह सत्य तीन अक्षरवाला संसार में विख्यात है, इस सत्य शब्द में एक पहिला अक्षर "स" है, दूसरा अक्षर मध्य का "त" है थोर तीसरा अक्षर अन्त का "" है, पहिला और तीसरा असर सत्य है, क्योंकि स में "अ" और य में "" स्वर होने के कारण विना सहायता के बाल जाते हैं, और दोनों के मध्य में जो "त" अक्षर है वह व्यञ्जन है, वह बौर सहायता स्वर के नहीं बोला जाता है, इस कारण "स-य" सत्य है, और "त" असत्य है, "स" अक्षर से मतलब ब्रस से है, और "य" से मतलब जीव से है, और "त" से मतलब माया से है, यानी जीव और ब्रह्म के मध्य में सत् असत् से विलक्षण माया स्थित है, सोई आगे पीछे ब्रह्म करके व्याप्त है, जो विद्वान ऐसा जानता है उसको माया नहीं सताती है ॥१॥ मन्त्रः २ तयत्तत्सत्यमसौस आदित्यो य एप एतस्मिन्मएडलेपुरुपो यश्चायं दक्षिणेतन्पुरुपस्तावेतावन्योऽन्यस्मिन्मतिष्ठितो रश्मिभिरेपोऽस्मिन्प्रतिष्ठितःप्राणैरयममुप्मिन्स यदोत्क्रमि- प्यन्भवति शुद्वमेवैतन्मएडलं पश्यति नैनमेने २श्मयः प्रत्यायन्ति ॥ पदच्छेदः। " तत् , यत्, तत् , सत्यम् , असो, . आदित्यः, यः,
पृष्ठ:बृहदारण्यकोपनिषद् सटीक.djvu/६३२
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।