अध्याय ४ ब्राह्मण ५ ६०३ , भावार्थ। हे मैत्रेयि!जहां पर यह श्रात्मां द्वैत भासता है, तहां ही दूसरा दूसरे को देखता है, दूसरा दूसरे को सूंघता है, दूसरा दूसरे का स्वाद लेता है, दूसरा दूसरे से कहता है, दूसरा दूसरे का सुनता है, दूसरा दूसरे का मनन करता है, दूसरा दूसर का स्पर्श करता है, दूसरा दूसरे को जानता है, परन्तु जहां इस पुरुष को संब.जगत् अपना आत्मा ही हो रहा है, वहां यह आत्मा किस करके किंसको देखे, किस करके किसको सूंघे, किस करके किसका स्वाद लेवे, किस करके किससे कहे, किस करके किसको सुने, किस करके. किसका मनन करे, किस करके किसको स्पर्श करे, किस करके किसको जाने, जिस करके यह पुरुष सबको जानता है उसको किस करके कोई जाने, वही यह आत्मा नेति नेति शब्द करके अग्राह्य है, जीर्णतारहित है, वही असङ्ग है, वही अबद्ध है, क्योंकि किसी करके वह ग्रहण नहीं किया जा सकता है, न जीर्ण किया जा सकता है, न वह किसीमें आसक्त है, न उसको कोई पीड़ा दे सक्ता है, न वह हत हो सकता है । हे मैत्रेयि ! यह आत्मा ज्ञानस्वरूप है । हे मैत्रेयि ! तू इस प्रकार उपदेश कीगई है, और तू अपने स्वरूप में स्थित है, यही मुक्ति है, अब मैं जाता हूं, ऐसा कहकर याज्ञवल्क्य महाराज चल दिये ॥ १५ ॥ इति पञ्चमं ब्राह्मणम् ॥ ५ ॥ इति श्रीबृहदारण्यकोपनिषदि भाषानुवादे चतुर्थोऽध्यायः॥४॥ , . .
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