अध्याय ४ ब्राह्मण ५. ह, उवाच, न, वा; अरे, अहम्, मोहम्, ब्रवीमि, अविनाशी, वा, अरे, अयम्, आत्मा, अनुच्छित्तिधर्मा ॥ अन्वय-पदार्थ । ह-जब । सा-वह मैत्रेयी । उवाच-बोली कि । भगवन्- हे भगवन् ! । अत्रैव-इस विज्ञानधन प्रारमा बिपे । मान्मुझे । त्वम् मापने । मोहान्तम्-मोहित । आपीपिपत्-किया है। इति-ऐसा । उक्त्वा-कह कर कि । अहम्-मैं । वा-निस्संदेह । इमम् इस प्रास्मा को । न-नहीं । विजानामि जानता हूँ। ह-तब । सामवह याज्ञवल्क्य । उवाच हबोले कि । अरे हे मैनोयि!! अहम्=मैं । सोहम्-अज्ञान की बात को। न वा नहीं। ब्रवीमि कहता हूँ । अरे हे मैत्रोयि !। अयम्-यह ! आत्मा मात्मा । अविनाशी-विकाररहित है। वा-और । अनुच्छित्ति धर्मा-नाशरहित है यानी जो धर्मरहित है उसको कोई कैसे जान सकता है। भावार्थ। यह सुनकर मैत्रेयी कहती है कि, हे प्रभो ! आपने इस विज्ञानघन आत्मा बिषे मुझको. मोहित किया है ऐसा कहकर कि मैं आत्मा को नहीं जानता हूँ, इस पर याज्ञवल्क्य महा- राज कहते हैं, हे मैत्रेयि ! मैं तुमको मोह में नहीं डालता हूँ। और न कोई अज्ञान की बात कही है, अरे मैत्रेयि! यह अपना आत्मा विकाररहित है, और नाशरहित है, यह आत्मा बुद्धि का विषय नहीं है, जब बुद्धि का विषय नहीं तब कैसे मैं कह सकता हूँ कि मैं इस आत्मा को जानता हूँ, अगर यह अपनी बुद्धि करके जाना जाय तो विकारवाला होजायगा, और जो विकारवाला होता है वह नाशधर्मवाला होता है, तुम अपने सन्देह को दूर करो और मेरे कहे हुये पर विचार करो॥१४॥ -
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